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________________ १६० ********* ********...... प्रज्ञापना सूत्र । ****************************************************************** कहि णं भंते! बायर तेउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? गोयमा! जत्थेव बायर तेउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता तत्थेव बायर तेउकाइयाणं अपजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स दोसु उड्डकवाडेसु तिरियलोयतट्टे य, समुग्घाएणं सव्वलोए, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे॥८४॥ कठिन शब्दार्थ- उड्डकवाडेसु- ऊर्ध्वकपाटों में, तिरियलोयतट्टे-तिर्यक्लोक रूप तट्ट-स्थाल में। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! अपर्याप्तक बादर तेजस्कायिक जीवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! जहाँ पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक जीवों के स्थान हैं वहीं अपर्याप्तक बादर तेजस्कायिक के स्थान कहे गये हैं। उपपात की अपेक्षा लोक के दो ऊर्ध्व कपाटों में तथा तिर्यक्लोक तट्ट-स्थाल रूप स्थान में, समुद्घात की अपेक्षा सर्वलोक में तथा स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में अपर्याप्तक बादर तेजस्कायिकों के स्थान का निरूपण किया गया है। अपर्याप्तक बादर तेउकाय का उपपात दो ऊर्ध्व कपाटों में तथा दोनों कपाटों में रहे हुए तिर्यक्लोक में अर्थात् दोनों कपाटों के अन्तरवर्ती तिर्यक्लोक में है। समुद्घात से सारे लोक में है तथा स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में यानी मनुष्य लोक में है। प्रश्न - बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक तीन प्रकार के कहे गये हैं - १. एक भविक . २. बद्धायुष्क और ३. अभिमुखनाम गोत्र। प्रश्न - एकभविक किसे कहते हैं? -- उत्तर - जो जीव एक विवक्षित भव के अनन्तर आगामी भव में बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक रूप में उत्पन्न होंगे वे एकभविक कहलाते हैं। .. . प्रश्न - बद्धायुष्क किसे कहते हैं ? ___उत्तर - जो जीव पूर्व भव की आयु का त्रिभाग आदि समय शेष रहते बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक की आयु बांध चुके हैं, वे बद्धायुष्क कहलाते हैं। प्रश्न - अभिमुख नाम गोत्र किसे कहते हैं? उत्तर - जो पूर्व भव का त्याग करने के बाद बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक का आयुष्य नाम और गोत्र का साक्षात् वेदन कर रहे हैं वे अभिमुख नाम गोत्र कहलाते हैं। इनमें से जो एकभविक और बद्धायुष्क हैं वे द्रव्य से बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक कहलाते हैंभाव से नहीं, क्योंकि ये उस समय तेजस्कायिक आयु, नाम और गोत्र का वेदन नहीं करते हैं। अतएव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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