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दूसरा स्थान पद - तेजस्काय स्थान
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यहाँ उन दोनों का ग्रहण नहीं है परन्तु अभिमुखनाम गोत्र वाले बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक का ही ग्रहण है क्योंकि स्वस्थान की प्राप्ति के अभिमुख रूप उपपात उनका ही संभव है। यद्यपि ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से वे भी बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक का आयुष्य नाम और गोत्र का उदय होने पूर्वोक्त दो ऊर्ध्व कपाट और तिर्यग्लोक के बाहर रहते हुए भी बादर अपर्याप्त तेजस्कायिक कहलाते हैं तथापि यहाँ व्यवहार नय की दृष्टि से जो स्वस्थान में समश्रेणिक दो ऊर्ध्व कपाट में स्थित हैं और जो स्वस्थान से अनुगत तिर्यक्लोक में प्रविष्ट हैं उन्हीं को बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक कहा जाता है शेष जो ऊर्ध्व कपाटों के अन्तराल में स्थित हैं उनको नहीं, क्योंकि वे विषम स्थानवर्ती हैं। अतः जो अभी तक दो ऊर्ध्व कपाटों में प्रविष्ट नहीं हुए हैं और तिर्यक्लोक में भी जिन्होंने प्रवेश किया नहीं वे पूर्वभव की अवस्था वाले हैं अत: उनकी गणना बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिकों में नहीं की जाती। कहा भी है -
पणयाल लक्ख पिहुला, दुण्णि कवाडा य छद्दिसिं पुट्ठा। लोगंते तेसिंऽतो जे तेऊ ते उ धिप्पंति॥
अर्थात् - ४५ लाख योज़न चौडे दो ऊर्ध्व कपाट हैं जो छहों दिशाओं में लोकान्त का स्पर्श करते हैं। उनके अन्दर अन्दर जो तेजस्कायिक हैं उन्हीं का यहाँ ग्रहण किया गया है।
इसीलिये कहा है कि - "उववाएणं दोसु उड्डकवाडेसु तिरियलोयतट्टे य' उपपात की अपेक्षा दो ऊर्ध्व कपाटों में और तिर्यक्लोक के तट्ट-स्थाल रूप में। अतः इस सूत्र की व्याख्या व्यवहार नय की दृष्टि से की गई है।
प्रश्न - दो ऊर्ध्व कपाटों से क्या आशय समझना चाहिए?
उत्तर - बादर तेजस्काय जीवों के अपर्याप्तकों का उपपात-'दोसु उड्नकवाडेसु तिरियलोग तट्टे य' - दो ऊर्ध्व कपाट का आशय इस प्रकार समझना चाहिए - 'जब लोक व्यापी पृथ्वीकायादि जीव मरकर मनुष्य (समय) क्षेत्रस्थ बादर तेजस्काय के अपर्याप्तकों में उत्पन्न होने के लिए वाटे बह रहे हों, तब उत्पत्ति स्थान की सीध में आ जाना बादर तेजस्कायिक अपर्याप्तकों का उपपात क्षेत्र विवक्षित है। "४५ लाख योजन के समय (मनष्य) क्षेत्र की सीध में आया हआ छहों दिशाओं का लोकान्त तक का क्षेत्र ‘दो ऊर्ध्व कपाट' के रूप में विवक्षित हैं।" यह सब क्षेत्र बादर तेजस्काय के अपर्याप्तकों के उपपात के रूप में विवक्षित (बताया गया) है। इसकी स्थापना आगे के पृ० १६२ पर दी गई है।
इस स्थापना के मध्य में जो गोलक है, वह समय क्षेत्र का प्रतीक है। उस क्षेत्र की सीध में ऊपर नीचे लोकान्त तक का क्षेत्र बादर तेजस्काय के अपर्याप्तकों का उपपात क्षेत्र माना गया है। स्थापना में चारों तरफ जो चार कर्ण बताये गये हैं, वे समय क्षेत्र की सीध में चारों दिशाओं में स्वयंभूरमण समुद्र (लोकान्त) पर्यन्त आये हुए हैं। इनकी चौड़ाई समय क्षेत्र के समान ४५ लाख योजन की है।
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