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________________ १६ प्रज्ञापना सूत्र ******************** *************** ***** * * * ****************** **** ** बनाने में थोड़ा समय लगता है और कटाह बनाने में अधिक समय लगता है। इसलिये वह पहले सूई बना देता है और कटाह पीछे। इसको "सूची कटाह न्याय'' कहते हैं। इस न्याय के अनुसार अजीव प्ररूपणा की वक्तव्यता अल्प है इसलिए पहले अजीव प्ररूपणा का प्रतिपादन किया जाता है। प्रश्न - ज्ञातव्य वीर्य किसे कहते हैं ? उत्तर - वीर्य शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है 'विशेषेण ईयेते चेष्ट्यते अनेन इति वीर्यम् अथवा विशेषेण ईर्यति प्रवर्त्तयति आत्मानं तासु तासु क्रियासु इति वीर्यम्।' अर्थ - जिसके द्वारा चेष्टा की जाय उसे वीर्य कहते हैं अथवा जीव को उन उन क्रियाओं में विशेष रूप में प्रेरित करे उसे वीर्य कहते हैं। प्रश्न - वीर्य जीव में होता है या अजीव में ? उत्तर - वीर्य जीवों में होता है अजीवों में नहीं। संसारी जीवों में दस द्रव्य प्राणों में से यथा योग्य प्राण होते हैं। अपने अपने क्षयोपशमानुसार यथा . योग्य भाव प्राण भी होते हैं। सिद्ध भगवन्तों में द्रव्य प्राण नहीं होते हैं किन्तु चार भाव प्राण होते हैं वे ये हैं - अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त अव्याबाध सुख और अनन्त आत्मिक शक्ति। कुछ लोगों की मान्यता है कि सिद्धों में अनन्त वीर्य होता है किन्तु यह मान्यता आगमानुकूल नहीं है क्योंकि भगवती सूत्र शतक एक उद्देशक आठ के मूल पाठ में गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान ने फरमाया है "जीवा णं भंते! किं सवीरिया अवीरिया? गोयमा! सवीरिया वि अवीरिया वि। से केणटेणं? गोयमा! जीवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - संसारसमावण्णगा य, असंसारसमावण्णगा य। तत्थ णं जे ते असंसारसमावण्णगा ते णं सिद्धा, सिद्धा णं अवीरिया।" अर्थ - हे गौतम! जीवों के दो भेद हैं संसारी और असंसारी। जो असंसारी हैं वे सिद्ध हैं। सिद्ध भगवन्त अवीर्य हैं। वीर्य का अर्थ बतलाया गया है कि जीव को किसी प्रकार की चेष्टा में प्रवृत्त करना। सिद्ध भगवन्त कृतकृत्य हो चुके हैं। उनको कोई भी काम करना बाकी नहीं रहा है। इसलिए किसी प्रकार की चेष्टा हलन चलन आदि क्रिया नहीं करते हैं क्योंकि सिद्ध अक्रिय (किसी प्रकार की क्रिया न करने वाले) हैं। अतः सिद्ध भगवन्तों में अनन्त वीर्य नहीं कहना चाहिए किन्तु अनन्तराय (अनन्त आत्मिक शक्ति) कहनी चाहिए। प्रश्न - द्रव्य प्राण कितने हैं ? उत्तर - द्रव्य प्राण दस हैं। वे इस प्रकार हैं - पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च। उच्छ्वास निःश्वास मथान्यदायुः। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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