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________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - पुद्गल द्वार ३८१ *************************************************-*-*-*-*-*-*-*-* -*-*-*-*-*-42 410-16-10-%216424210-2012 उनकी पर्यायों पर भी वर्तता है। द्रव्यों का अलग कालद्रव्य, प्रदेशों का और पर्यायों का भी अलग अलग काल द्रव्य गिना जाता है। जैसे कोई द्विप्रदेशावगाढ़ द्रव्य है तो उसके दोनों प्रदेशों पर अलगअलग काल द्रव्य गिना जाता है। इस अपेक्षा से समझने पर 'अधोलोक तिर्यग्लोक' में काल द्रव्य नहीं होने से उपरोक्त अल्पबहुत्व में किसी प्रकार से भी विसंगति नहीं आती है। अर्थात् आगमपाठ की संगति बराबर बैठ जाती है। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवाइं दव्वाइं अहोदिसाए, उड्ढदिसाए अणंतगुणाई, उत्तरपुरच्छिमेणं दाहिणपच्चत्थिमेणं च दोवि तुल्लाइं असंखिजगुणाई, दाहिणपुरच्छिमेणं उत्तरपच्चत्थिमेणं च दोवि तुल्लाइं विसेसाहियाई, पुरच्छिमेणं असंखिजगुणाई, पच्चत्थिमेणं विसेसाहियाई, दाहिणेणं विसेसाहियाई, उत्तरेणं विसेसाहियाइं॥ २१२॥ भावार्थ - दिशा की अपेक्षा सबसे थोडे द्रव्य अधोदिशा में हैं, उनसे ऊर्ध्व दिशा में अनन्त गुणा हैं, उनसे उत्तर-पूर्व दिशा (ईशान कोण) में और दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य कोण) में असंख्यात गुणा और परस्पर तुल्य हैं, उनसे दक्षिण-पूर्व (आग्नेय कोण) में और उत्तर-पश्चिम (वायव्य कोण) में परस्पर तुल्य और विशेषाधिक हैं, उनसे पूर्व में असंख्यात गुणा हैं, उनसे पश्चिम में विशेषाधिक हैं, उनसे दक्षिण में विशेषाधिक हैं और उनसे उत्तर में विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में दिशा की अपेक्षा द्रव्य का अल्पबहुत्व कहा गया है - १. सबसे थोड़े द्रव्य अधोदिशा में हैं क्योंकि अधोदिशा में काल नहीं होने से वहाँ द्रव्य सबसे थोड़े हैं २. उनसे ऊर्ध्वदिशा में अनन्तगुणा हैं क्योंकि ऊर्ध्व दिशा में मेरु पर्वत का ५०० योजन का स्फटिकमय काण्ड है। वहाँ चन्द्र सूर्य की प्रभा का प्रवेश होने से काल द्रव्य है। यह काल प्रत्येक परमाणु आदि द्रव्यों पर अनन्त अनन्त है अतः 'ऊर्ध्वलोक में द्रव्य अनन्त गणा हैं। ३. उनसे उत्तर-पूर्व (ईशान कोण) और दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य कोण) में परस्पर तुल्य असंख्यात गुणा हैं क्योंकि इनका क्षेत्र असंख्यात गुणा होने से द्रव्य असंख्यात गुणा हैं। दोनों दिशा में क्षेत्र बराबर होने से परस्पर द्रव्य तुल्यं हैं। ४. उनसे दक्षिण-पूर्व (आग्नेय कोण) और उत्तर-पश्चिम (वायव्य कोण) में परस्पर तुल्य विशेषाधिक हैं क्योंकि सौमनस और गंधमादन पर्वत पर सात-सात कूट हैं। दो-दो कूट कम होने से वहाँ धूवर, ओस आदि के सूक्ष्म पुद्गल द्रव्य बहुत हैं अत: विशेषाधिक हैं। ५. उनसे पूर्व दिशा में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि पूर्व दिशा का क्षेत्र असंख्यात गुणा हैं अतः इस दिशा में द्रव्य भी असंख्यात गुणा हैं। ६. उनसे पश्चिम दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि पश्चिम दिशा में अधोलौकिक ग्रामों में पोलार अधिक होने से बहुत पुद्गल द्रव्यों का सम्भव है अत: विशेषाधिक हैं। ७. उनसे दक्षिण दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि दक्षिण दिशा में भवनपति देवों के ४,०६,००,००० (चार करोड़ छह लाख) भवन हैं। पोलार अधिक होने से द्रव्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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