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________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - असंसार समापन्न जीव प्रज्ञापना ************************************************* ********************************* ८. स्त्रीलिङ्ग सिद्ध - स्त्रीलिङ्ग से अर्थात् स्त्री की आकृति रहते हुए मोक्ष जाने वाले स्त्रीलिङ्ग सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - चन्दनबाला आदि। . पुरुष लिङ्ग सिद्ध - पुरुष की आकृति रहते हुए मोक्ष में जाने वाले पुरुष लिङ्ग सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - गौतम स्वामी, अर्जुनमाली आदि। १०. नपुंसकलिङ्ग सिद्ध - नपुंसक लिङ्ग में सिद्ध होने वाले नपुंसक लिङ्ग सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - गाङ्गेय अनगार आदि। ११. स्वलिङ्ग सिद्ध - साधु वेश रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि में रहते हुए मोक्ष जाने वाले स्वलिङ्ग सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - गौतम अनगार आदि जैन साधु। १२. अन्यलिङ्ग सिद्ध - परिव्राजक आदि के वल्कल, गेरूएं वस्त्र आदि द्रव्य लिङ्ग में रह कर मोक्ष जाने वाले अन्य लिङ्ग सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - वल्कलचीरी आदि। १३. गृहस्थलिङ्ग सिद्ध - गृहस्थ के वेश में मोक्ष जाने वाले गृहस्थलिङ्ग (गृहीलिङ्ग) सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - मरुदेवी माता आदि। १४. एक सिद्ध - एक समय में एक मोक्ष जाने वाले जीव एक सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - भगवान् महावीर स्वामी, जम्बूस्वामी आदि। १५. अनेक सिद्ध - एक समय में अनेक (एक से अधिक) मोक्ष जाने वाले अनेक सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - भगवान् ऋषभदेव आदि। प्रश्न - नपुंसक किसको कहते हैं ? उत्तर - राणियों के अन्तःपुर में रखने के लिए पुरुषों को लिङ्ग आदि काट कर नपुंसक बनाएँ जाते हैं। वे वास्तव में नपुंसक नहीं हैं। किन्तु कृत्रिम (पुरुष से बनाये हुए) हैं। वास्तविक नपुंसक तो जो जन्म से नपुंसक हो वही नपुंसक है। प्रश्न-कौन से नपंसकको मोक्ष होता है? उत्तर - ऊपर यह बताया जा चुका है कि पुरुष को नपुंसक बनाया जाता है वह कृत्रिम नपुंसक है वास्तव में तो वह पुरुष ही है। वह मुक्ति जा सकता है और उसकी गिनती पुरुषलिङ्ग सिद्ध में होती है। जो जन्म से नपुंसक हैं वे वास्तविक नपुंसक हैं वह मुक्ति जा सकता है। यह बात भगवती सूत्र के छब्बीसवें शतक के मूल पाठ से सिद्ध होती है। अतः आगमानुसार यह स्पष्ट है कि जन्म नपुंसक मोक्ष जा सकता है। प्रश्न - प्रतिक्रमण के पाठ में चौदह प्रकार के सिद्ध बताये हैं वे कौन से हैं? उत्तर - उत्तराध्ययन सूत्र के छत्तीसवें अध्ययन की ५०, ५१ वीं गाथा में चौदह प्रकार के सिद्ध बताये हैं। वे गाथाएँ इस प्रकार है - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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