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प्रथम प्रज्ञापना पद - पृथ्वीकायिक जीव प्रज्ञापना
पृथ्वीकायिक और २. अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक। इस प्रकार सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं।
विवेचन प्रश्न पर्याप्ति किसे कहते हैं ?
उत्तर - आहारादि के लिये पुद्गलों को ग्रहण करने तथा उन्हें आहार शरीर आदि रूप परिणमाने की आत्मा की शक्ति विशेष को पर्याप्ति कहते हैं। जब जीव नया जन्म ग्रहण करता है तब जिन जीवों में जितनी पर्याप्तियों का संभव है उन सभी पर्याप्तियों को वह जीव एक साथ बनाना प्रारम्भ कर देता है किन्तु उनकी समाप्ति क्रम से होती है। आशय यह है कि सभी पर्याप्तियों का प्राम्भ काल एक है और समाप्ति काल भिन्न-भिन्न है । आहार पर्याप्ति की पूर्णता का समय एक समय है बाकी सब पर्याप्तियों का समय अन्तर्मुहूर्त्त - अन्तर्मुहूर्त है। इसके छह भेद हैं
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१. आहार पर्याप्ति - जिस शक्ति से जीव आहार योग्य बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके उसे खल रूप में और रस रूप में परिणमाता (बदलता) है उसे आहार पर्याप्ति कहते हैं।
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२. शरीर पर्याप्ति - जिस शक्ति द्वारा जीव रस रूप में परिणत आहार को रस, खून, मांस, चर्बी, हड्डी, मज्जा और शुक्र रूप सात धातुओं में बदलता है उसे शरीर पर्याप्ति कहते हैं।
३. इन्द्रिय पर्याप्ति - जिस शक्ति द्वारा जीव सात धातुओं में परिणत आहार को इन्द्रियों के रूप में परिवर्तित करता है उसे इन्द्रिय पर्याप्ति कहते हैं, अथवा पांच इन्द्रियों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर के अनाभोग निर्वर्तित वीर्य द्वारा उन्हें इन्द्रिय रूप में परिणमाने की जीव की शक्ति विशेष को इन्द्रिय पर्याप्त कहते हैं ।
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४. श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति जिस शक्ति के द्वारा जीव श्वासोच्छ्वास योग्य पुद्गलों को श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता है और छोड़ता है उसे श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति कहते हैं । इसी को आणपाण पर्याप्ति एवं उच्छ्वास पर्याप्ति भी कहते हैं ।
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५. भाषा पर्याप्ति - जिस शक्ति के द्वारा जीव भाषा योग्य भाषा वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर उन्हें भाषा के रूप में परिणत करता है और छोड़ता है उसे भाषा पर्याप्ति कहते हैं।
६. मनः पर्याप्ति - जिस शक्ति के द्वारा जीव मन योग्य मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें मन के रूप में परिणत करता है तथा उनका अवलम्बन लेकर छोड़ता है उसे मनः पर्याप्ति कहते हैं ।
श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनः पर्याप्ति में अवलम्बन लेकर छोड़ना लिखा है। इसका आशय यह है कि इनके छोड़ने में शक्ति की आवश्यकता होती है और वह इन्हीं पुद्गलों का अवलम्बन लेने से उत्पन्न होती है। जैसे गेंद पकड़ते समय उसे जोर से पकड़ते हैं और इससे हमें गेंद फेंकने में शक्ति प्राप्त होती है। अथवा जैसे बिल्ली ऊपर से कूदते समय अपने शरीर को संकुचित करके उससे सहारा लेती
हुई
है।
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