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प्रथम प्रज्ञापना पद - वनस्पतिकायिक जीव प्रज्ञापना
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जिस कंद के काष्ठ से छाल अधिक मोटी हो वह अनंत जीव वाली है, इसी प्रकार की जो भी अन्य छाले हों उन्हें अनन्त जीव वाली समझनी चाहिये।। ३१॥
जिस स्कंध के काष्ठ से छाल अधिक मोटी हो वह छाल अनंत जीव वाली है। इसी प्रकार की अन्य जितनी भी छाले हैं उन्हें अनंत जीव वाली समझनी चाहिये।। ३२॥
जिस शाखा के काष्ठ से छाल अधिक मोटी हो वह छाल अनंत जीव वाली है। इस प्रकार जितनी भी छाले हैं उन्हें अनंत जीव वाली समझनी चाहिये।। ३३॥
विवेचन - यहाँ पर मूल आदि चार भेदों के अन्दर के काष्ठ से छाल जाड़ी बताई है अन्य भेदों के नहीं बताई
क उनके अन्दर काष्ठ नहीं होता है। जिनके अन्दर काष्ठ बताया गया है वह अन्दर की लकड़ी मकान आदि के काम आती है।
जस्स मूलस्स कट्ठाओ, छल्ली तणुयतरी भवे। परित्त जीवा उ सा छल्ली, जे यावण्णा तहाविहा॥३४॥ जस्स कंदस्स कट्ठाओ, छल्ली तणुयतरी भवे। परित्त जीवा उ सा छल्ली, जे यावण्णा तहाविहा॥३५॥ जस्स खंधदस्स कट्ठाओ, छल्ली तणुयतरी भवे। परित्त जीवा उ सा छल्ली, जे यावण्णा तहाविहा॥३६॥ जीसे सालाए कट्ठाओ, छल्ली तणुयतरी भवे। परित्त जीवा उ सा छल्ली, जे यावण्णा तहाविहा॥३७॥
भावार्थ - जिस मूल के काष्ठ से उसकी छाल अधिक पतली हो वह छाल प्रत्येक जीव वाली है। इसी प्रकार जितनी भी छाले हैं, उन्हें प्रत्येक जीव वाली समझना चाहिए।।३४॥ - जिस कंद के काष्ठ से उसकी छाल अधिक पतली हो वह छाल प्रत्येक जीव वाली है। इस प्रकार की जितनी भी अन्य छाले हैं, उन्हें प्रत्येक जीव वाली समझना चाहिये।। ३५॥
जिस स्कंध के काष्ठ से उसकी छाल अधिक पतली हो वह छाल प्रत्येक जीव वाली है। इस प्रकार की अन्य जितनी भी छाले हैं, उन्हें प्रत्येक जीव वाली समझना चाहिये।। ३६॥
जिस शाखा के काष्ठ से उसकी छाल अधिक पतली हो, वह छाल प्रत्येक जीव वाली है। इसी प्रकार की अन्य जितनी भी छालें हैं, उन्हें प्रत्येक जीव वाली समझनी चाहिये।। ३७॥
चक्कागं भजमाणस्स, गंठी चुण्णघणो भवे। पुढवीसरिसभेएण, अणंतजीवं वियाणाहि॥३८॥
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