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________________ . ३२४ ****** प्रज्ञापना सूत्र ****** *********************** का भी समावेश होता है उनसे अपर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि एक एक पर्याप्तक बादर निगोद के आश्रित असंख्यात अपर्याप्तक बादर निगोद की उत्पत्ति होती है । उनसे सामान्य रूप से बादर अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं क्योंकि अपर्याप्तक बादर तेजस्कायिक आदि का भी इसमें समावेश होता है उनसे सामान्य बादर जीव विशेषाधिक हैं क्योंकि उनमें पर्याप्तकों का भी समावेश होता है, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि बादर निगोद की अपेक्षा अपर्याप्त सूक्ष्म निगोद असंख्यात गुणा हैं, उनसे सामान्यतः सूक्ष्म अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं क्योंकि उनमें अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक आदि का भी समावेश होता है, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक संख्यात गुणा हैं क्योंकि अपर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक से पर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक संख्यात गुणा हैं क्योंकि सूक्ष्म जीवों में सामान्य रूप से अपर्याप्तक से पर्याप्तक संख्यातगुणा होते हैं, इसलिए सूक्ष्म अपर्याप्तकों से संख्यात गुणा हैं क्योंकि सूक्ष्म अपर्याप्तकों का विशेषाधिकपना संख्यात गुणा में बाधक नहीं है। उनसे सामान्य सूक्ष्म पर्याप्तक विशेषाधिक हैं क्योंकि पर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक आदि का भी उसमें समावेश होता है उनसे पर्याप्तक या अपर्याप्तक विशेषण रहित सामान्य सूक्ष्म जीव विशेषाधिक हैं क्योंकि उनमें अपर्याप्तकों का भी समावेश होता है। इस प्रकार सूक्ष्म बादर का शामिल पांचवां अल्पबहुत्व कहा गया है। ॥चौथा काय द्वार समाप्त॥ ५. पांचवां योग द्वार . एएसि णं भंते! जीवाणं सजोगीणं मणजोगीणं वइजोगीणं कायजोगीणं अजोगीणं च कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा मणजोगी, वइजोगी असंखिज गुणा, अजोगी अणंत गुणा, कायजोगी अणंत गुणा, सजोगी विसेसाहिया॥५ दारं॥१७२॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन सयोगी, मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? . उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े जीव मनोयोगी हैं, उनसे वचनयोगी असंख्यात गुणा हैं, उनसे अयोगी अनंत गुणा हैं उनसे काय योगी अनन्त गुणा हैं और उनसे भी सयोगी विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रश्न - योग किसे कहते हैं ? उत्तर - यः आत्मानं अष्ट विधेन कर्मणा योजयति इति योगः। अथवा योज्यते आत्मा अष्ट विधेन कर्मणा येन स योगः। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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