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प्रज्ञापना सूत्र
यह
के द्वारा त्याग दिया जाता है तब वह बीज योनिभूत कहलाता है। बीज जीव रहित हुआ है छद्मस्थ के द्वारा निश्चय से नहीं कहा जा सकता। जो अविनष्ट योनि वाला ऊगने की शक्ति वाला होता है वह बीज योनिभूत कहलाता है और विनष्ट योनि वाला होता है वह नियम से अचेतन होने के कारण अयोनिभूत कहलाता है।
जो बीज जमीन में बोया जाता है, वह गीली मिट्टी, धूप, हवा आदि का संयोग पाकर फूल जाता । तब वह बीज का जीव अपना आयुष्य पूर्ण हो जाने के कारण बीज का त्याग करके वही बीज का जीव मूल आदि नाम गोत्र को उपार्जन करके बीज में उत्पन्न हो जाता है । अथवा अंकुरित हो जाता है। इस प्रकार वनस्पति का जीव उसी वनस्पति में उत्पन्न हो जाता है। इसको "पउट्ट परिहार" कहते हैं । यह पउट्ट परिहार पांचों स्थावरकायों में होता है तथा अन्य असन्नी जीवों में भी हो सकता है। ( इसका वर्णन भगवती सूत्र के पन्द्रहवें गोशालक नामक अध्ययन में है) यदि कदाचित् वह बीज का जीव वापिस उसी में उत्पन्न नहीं होता है तो दूसरा पृथ्वीकायिक आदि जीव आकर उत्पन्न हो जाता है।
बीज के द्वारा जो प्रथम पत्र उत्पन्न होता है उसके लिये यह नियम है कि मूल का जो जीव हैं वही पहले पत्ते में उत्पन्न होता है अर्थात् मूल और प्रथम पत्र एक ही जीव के द्वारा बनाये जाते हैं।
प्रश्न - पहले यह कहा गया है कि "सव्वो वि किसलओ खलु उग्गममाणो अनंतओ भणिओ" अर्थ - सब किसलय अर्थात् ऊगता हुआ अङ्कुर अनन्तजीव वाला होता है, तो फिर इसके साथ विरोध नहीं आयेगा ?
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उत्तर - बीज का जीव अथवा अन्य जीव मूल रूप से उत्पन्न होकर फिर वह फूलता है उसके बाद किसलय अवस्था को प्राप्त होता है। अनन्त जीव मिलकर उस किसलय अवस्था को पैदा करते हैं। इसलिये ऊगता हुआ किसलय अनन्त जीविक होता है। फिर उन अनन्त जीवों का आयुष्य पूरा होने से वह मूल जीव उस अनन्तजीव रूप शरीर को अर्थात् किसलय को अपने शरीर रूप से परिणत करके तब तक वृद्धि को प्राप्त होता है, जब की वह प्रथम पत्र बन जाता है। इसलिए किसलय अवस्था अनन्त जीव रूप है और प्रथम पत्र भी एक जीव रूप है। इस प्रकार मूल बीज और प्रथम पत्र एक जीव कर्तृक (एक जीव द्वारा बनाये हुए) हैं। इसलिये परस्पर किसी प्रकार का विरोध नहीं है।
दूसरे आचार्यों ने तो उपरोक्त शङ्का का समाधान इस प्रकार दिया है कि प्रथम पत्र का अर्थ किया है बीज की फूली हुई अवस्था । इसलिए मूल और प्रथम पत्र एक जीव कर्तृक हैं। तात्पर्य यह है कि मूल और समुच्छून (फूली हुई) अवस्था । ये दोनों एक जीव कर्तृक हैं। ये बात नियम बतलाने के लिए कही गयी है कि मूल और समुच्छून अवस्था एक जीव द्वारा परिणामित होते हैं। शेष किसलय आदि मूल जीव द्वारा ही परिणमित होते हैं यह आवश्यक नहीं हैं। इसलिए "सव्वो वि किसलओ खलु उग्गममाणो अनंतओ भणिओ" में किसी प्रकार का विरोध नहीं आता है।
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