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________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - वनस्पतिकायिक जीव प्रज्ञापना ८१ **************** ******** *-*-*-*-* - *-*-*-*-*-* *-**-*-**-*-* यही अर्थ किया है और यहाँ पन्नवणा सूत्र में पलण्डु और लहसुन को परित्तजीवी बताया है अत: यह कोई अप्रसिद्ध प्रत्येक वनस्पति विशेष है, ऐसा समझना चाहिए। हरी (कच्ची) सूंठ को अदरक कहते हैं। इसके लिए "सिंगबेर और सुंठि" ये दो शब्द आगम में आते हैं। यहाँ पन्नवणा सूत्र के ४६ वीं गाथा में 'सुंठि' शब्द दिया है और इसको एक जीव वाला बताया है अतः यह कोई प्रत्येक वनस्पति विशेष समझना चाहिए परन्तु इसको साधारण वनस्पति से भिन्न समझना चाहिए। प्रचलित हरी कच्ची सूंठ जिसको वर्तमान में अदरक कहते हैं वह तो साधारण वनस्पति (अनन्तकायिक) ही है। ऐसा समझना चाहिए, क्योंकि एक शब्द अनेक अर्थों में आ जाता है जैसा कि अमरकोष आदि में एक शब्द के अनेक पर्यायवाची दिये हैं - जैसा कि - हरि शब्द के विष्णु, बन्दर, सूर्य आदि दस अर्थ दिये हैं। इसी प्रकार गोशब्द के भी दस अर्थ दिये हैं। इसी प्रकार यहाँ पलण्डु, सिंगबेर, सुंठि आदि शब्दों से भिन्न-भिन्न अर्थ वाली वनस्पति लेनी चाहिए। इनमें कोई अनन्तकायिक हैं और कोई परित्तकायिक हैं। ____ कोरण्टक आदि स्थल फूल हैं। इनमें अतिमुक्तक फूल डंठलबद्ध होते हैं और जाति (जूई) के फूल नालिका बद्ध होते हैं। इनमें पत्रगत जीव की अपेक्षा कितनेक संख्यात जीविक, कितनेक असंख्यात. जीविक तथा कितनेक अनन्त जीविक होते हैं। जूई आदि के फूल तो संख्यात जीविक होते हैं स्निहूपुष्प (थूहर के फूल) तो सब अनन्त जीविक होते हैं। पद्मिनीकन्द (उत्पलिनी कन्द) और अन्तरकन्द यह जल में पैदा होने वाली वनस्पति विशेष है। झिल्लिका (वनस्पति विशेष) ये सब अनन्त जीविक हैं किन्तु पद्मिनी (कमलिनी) के नाल और नाल का तन्तु (मृणाल) ये दोनों एक जीवात्मक होते हैं। बीए जोणिब्भूए जीवो, वक्कमइ सो व अण्णो वा। जो वि य मूले जीवो, सो वि य पत्ते पढमयाए॥५१॥ सव्वोवि किसलओ खलु, उग्गममाणो अणंतओ भणिओ। सो चेव विवतो होइ, परित्तो अणंतो वा॥५२॥ कठिन शब्दार्थ - जोणिभूए - योनिभूत, वक्कमइ - उत्पन्न होता है, किसलओ - किसलय (कोंपल), उग्गममाणो - उगता हुआ, विवतो - वृद्धि पाता हुआ। भावार्थ - योनि भूत बीज में वही बीज का जीव उत्पन्न होता है या अन्य कोई जीव उत्पन्न होता है परन्तु जो मूल का जीव है वही प्रथम पत्र के रूप में परिणत होता है। सभी किसलय उगते हुए अनन्तकायिक कहे गये हैं और वृद्धि पाते हुए प्रत्येक शरीर या अनन्तकायिक होते हैं ॥५१-५२॥ विवेचन - जीव के उत्पत्ति स्थान को योनि कहते हैं। बीज की दो अवस्थाएँ होती हैं-योनि भूत (अवस्था) और अयोनि भूत (अवस्था)। जब बीज योनि अवस्था का परित्याग नहीं करता किन्तु जीव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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