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________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - वनस्पतिकायिक जीव प्रज्ञापना ************************************************************************************ शंका - पहले यह बतलाया गया है कि ऊगता हुआ किसलय अनन्त कायिक होता है तो क्या वह कभी परित्त भी हो सकता है ? उत्तर - हाँ, ऊगने के बाद किसलय वृद्धि को प्राप्त होता है उस समय वह परित्त जीवी हो जाता है। प्रश्न - वह परित्त जीवी कैसे हो जाता है क्योंकि जब उसने साधारण शरीर बनाया है तब वह साधारण ही रहना चाहिए और जब प्रत्येक शरीर बनाया है तो प्रत्येक शरीरी ही रहना चाहिए? उत्तर - यह एकान्त नियम नहीं है क्योंकि साधारण शरीरी जीव भी प्रत्येक शरीरी हो जाता है। प्रश्न - साधारण शरीरी भी कितने काल के बाद प्रत्येक शरीरी हो जाता है? उत्तर - अन्तमुहूर्त के बाद वह परित्त जीवी हो सकता है क्योंकि निगोदों की उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की ही बताई है इसलिए बढ़ता हुआ साधारण शरीरी किसलय प्रत्येक शरीरी भी हो जाता है। ___यहाँ जो किसलय अवस्था बताई गई वह बीज फुटने के अन्तर्मुहूर्त बाद होने की संभावना है। बीज फुटने के दूसरे ही समय में होना एकान्त जरूरी ध्यान में नहीं आता है क्योंकि सचित्त आदि तीनों ही प्रकार की योनि होती है। मूंग, मोठ आदि धान्य को पानी में भिगोने पर अंकर फुट गये हो फिर उन्हें धूप में सूखा दिया हो तो उन्हें अचित्त समझना चाहिये क्योंकि बीज के फुटने से बीज के जीव तो चव गये तथा किसलय अवस्था में अंकुर निकलते समय जो अनन्तकाय उत्पन्न हुई वह तो थोड़े काल बाद नष्ट हो जाती है। बीज फुट कर जब तक बाहर न आवे तब तक समुच्छून अवस्था में एकजीवी रहता है अर्थात् कोमल अवस्था में पत्र उत्पन्न होने के बाद जब तक उसकी नेश्राय में अनन्त जीव उत्पन्न हो तब तक एकजीवी समझना चाहिये। क्योंकि भगवती सूत्र के ११ वे शतक में एक पत्र वाले उप्पल को एकजीवी ही बताया है। नोट - योनिभूत बीज के सचित्त आदि से सम्बन्धित विस्तृत चर्चा आचार्य श्री जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण द्वारा विरचित विशेषणवती ग्रन्थ के ४६ वें विशेष में की हुई है। जिज्ञासुओं के लिए वह ग्रन्थ द्रष्टव्य है। समयं वक्कंताणं समयं तेसिं सरीर णिव्वत्ती। समयं अणुग्गहणं, समयं ऊसासणीसासे॥५३॥ इक्कस्स उजं गहणं, बहुणं साहारणाणं तं चेव। जं बहुयाणं गहणं समासओ तं पि इक्कस्स॥५४॥ साहारणमाहारो साहारणमाणुपाणगहणं च। साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं एयं॥५५॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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