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________________ ८४ ***宗樂樂****************嵌谢谢谢谢谢爿 प्रज्ञापना सूत्र *案******嚳帝冰樂樂業未央宗憲家宴宇家楽案案楽楽南必影味的南安米果去*号号。 जह अयगोलो धंतो जाओ तत्ततवणिज्ज संकासो । सव्वो अगणिपरिणओ णिगोयजीवे तहा जाण ॥ ५६ ॥ एगस्स दोह तिह व संखिज्जाण व ण पासिउं सक्का । दीति सरीराइं णिओयजीवाणं अणंताणं ॥ ५७ ॥ कठिन शब्दार्थ- सरीरणिव्वत्ती - शरीर निष्पत्ति, आणुग्गहणं- प्राणानपान ग्रहण, ऊसास - णीसासेउच्छ्वास-नि:श्वास, अयगोलो - लोहे का गोला, तत्ततवणिज्जसंकासो - तपे हुए सोने के समान । भावार्थ - एक साथ उत्पन्न हुए उन जीवों की शरीर निष्पत्ति ( शरीर रचना) एक ही काल में होती है एक साथ प्राणानपान ग्रहण - श्वासोच्छ्वास के योग्य पुद्गलों का ग्रहण होता है और एक साथ ही उच्छ्वास निःश्वास होता है ॥ ५३ ॥ एक जीव का जो आहारादि पुद्गलों का ग्रहण होता है वही बहुत से साधारण जीवों का होता है और जो आहारादि पुद्गलों का ग्रहण बहुत से जीवों का होता है वही संक्षेप से एक का ग्रहण होता. है ॥ ५४ ॥ Jain Education International साधारण जीवों का साधारण आहार और साधारण श्वासोच्छ्वास के पुद्गलों का ग्रहण एवं श्वासोच्छ्वास भी साधारण होता है। यह साधारण जीवों का लक्षण है ॥ ५५ ॥ जैसे अग्नि में अत्यंत तपाया हुआ लोहे का गोला तपे हुए सोने के गोर्ले के समान सारा अग्नि परिणत (अग्निमय) हो जाता है उसी प्रकार निगोद के जीवों के संबंध में जानना चाहिये ॥ ५६ ॥ एक, दो, तीन यावत् संख्यात (अथवा असंख्यात) बादर निगोद जीवों के शरीर को देखना संभव नहीं किन्तु अनंत जीवों के असंख्यात शरीर मिलकर ही दिखाई देते हैं ॥ ५७ ॥ विवेचन - साधारण वनस्पतिकायिक जीव एक साथ ही उत्पन्न होते हैं, एक साथ ही उनका शरीर बनता है, एक साथ ही वे श्वासोच्छ्वास के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और एक साथ ही उनका श्वासोच्छ्वास होता है। एक जीव का आहार आदि के पुद्गलों को ग्रहण करना ही उस शरीर के आश्रित बहुत से जीवों का आहारादि पुद्गल ग्रहण करना है इसी प्रकार बहुत से जीवों का आहारादि पुद्गल ग्रहण करना भी एक जीव का आहारादि पुद्गल ग्रहण करना है। क्योंकि वे सब जीव एक ही शरीर में आश्रित होते हैं । यहाँ गाथा में 'इक्कस्स' व 'बहुणं' शब्द दिया है इसका आशय इस प्रकार समझना चाहिये - यहाँ पर एक जीव को अलग ग्रहण किया है। इसलिए इसके सिवाय शेष जीव बहुत ही होंगे, सब नहीं। क्योंकि सबसे वह जीव अलग बताया गया है तथा गाथा में आया हुआ 'बहुणं' शब्द का प्रयोग भी इसी अर्थ का सूचक है। एक निगोद शरीर में अनन्त जीवों का परिणमन कैसे होता है ? इसका समाधान करते हुए सूत्रकार For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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