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________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना ११५ *********** ******************************************* ****** ***************** **** मेण्ढमुख मेघमुख बिगाड़ कर दाढाओं की कल्पना कर ली गई मालूम होती है। सूत्र का वर्णन देखने से दाढायें किसी भी प्रकार सिद्ध नहीं होती है। जिस प्रकार चुल्लहिमवान पर्वत की चारों विदिशाओं में अट्ठाईस अन्तरद्वीप कहे गये हैं उसी प्रकार शिखरी पर्वत की चारों विदिशाओं में भी अट्ठाईस अन्तरद्वीप हैं। जिनका वर्णन भगवती सूत्र के दसवें शतक के सातवें उद्देशक से लेकर चौतीसवें उद्देशक तक २८ उद्देशकों में किया गया है। उनके नाम आदि सब समान हैं। छप्पन अंतरद्वीपों के नाम इस प्रकार हैं - छप्पन अंतरद्वीपों के नाम - ईशान कोण आग्नेय कोण नैऋत्य कोण वायव्य कोण १. एकोरुक आभासिक वैषाणिक नाङ्गोलिक २. हयकर्ण गजकर्ण गोकर्ण शष्कुलकर्ण ३. आदर्शमुख अयोमुख गोमुख ४. अश्वमुख हस्तिमुख सिंहमुख व्याघ्रमुख ५. अश्वकर्ण हरिकर्ण अकर्ण कर्णप्रावरण ६. उल्कामुख विद्युन्मुख विद्युतदन्ता ७. घनदन्त लष्टदन्त गूढदन्त शुद्धदन्त चुल्लहिमवान् पर्वत की तरह ही शिखरी पर्वत की चारों विदिशाओं में उपरोक्त नाम वाले सातसात अन्तरद्वीप हैं। इस प्रकार दोनों पर्वतों की चारों विदिशाओं में छप्पन अन्तरद्वीप हैं। प्रत्येक अन्तर द्वीप चारों ओर पद्मवर वेदिका से शोभित हैं और पद्मवर वेदिका भी वनखण्ड से घिरी हुई है। इन अन्तरद्वीपों में अन्तरद्वीप के नाम वाले ही युगलिक मनुष्य रहते हैं। जैसे कि एकोरुक द्वीप में रहने वाले मनुष्य को भी एकोरुक युगलिक मनुष्य कहते हैं। जैसे कि बोलचाल की भाषा में पंजाब में रहने वाले को पंजाबी, मारवाड़ में रहने वाले को मारवाड़ी और गुजरात में रहने वाले को गुजराती कहते हैं। इसी प्रकार इन अन्तरद्वीपों में रहने वाले मनुष्यों को भी अन्तरद्वीप के नाम से कहा जाता है। ये नाम संज्ञा मात्र है इसलिए इनका समास युक्त विग्रह वाक्य नहीं किया जाता है क्योंकि संस्कृत व्याकरण का नियम है - "संज्ञायमिति पदेन नित्य समासो दर्शितः। अविग्रहो नित्यसमासः॥" संज्ञा - अर्थात् किसी का जो नाम हो उसका विग्रह नहीं करना चाहिए जैसे कि किसी का नाम देवदत्त है, यज्ञदत्त है-इनका अर्थ यह नहीं है कि देवता के द्वारा दिया हुआ या यज्ञ के द्वारा दिया हुआ, किन्तु यह माता-पिता वृद्धजनों द्वारा दिया हुआ संज्ञारूप नाम है। प्राचीन समय में किसी चित्रकार ने इन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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