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________________ १३४ ******************************* प्रज्ञापना सूत्र ********************************************** क्षीणकषाय के कारण आर्य हैं वे क्षीण कषाय दर्शन आर्य कहलाते हैं। उपशांत कषाय वीतराग दर्शनार्य वे हैं जिनके समस्त कषायों का उपशमन हो चुका है अतएव जिनमें वीतरागता प्रकट हो चुकी है। ऐसे ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि । क्षीण कषाय वीतराग दर्शनार्य वे हैं जिनके समस्त कषाय क्षीण हो चुके हैं अतएव जिनमें वीतराग दशा प्रकट हो चुकी है वे बारहवें से लेकर चौदहवें गुणस्थानवर्ती मुनि । जिन्हें इस अवस्था में पहुँचे प्रथम समय हुआ है वे प्रथम समयवर्ती और जिन्हें एक समय से अधिक हो गया हो वे अप्रथम समयवर्ती कहलाते हैं । इसी प्रकार समय भेद के कारण चरम समयवर्ती और अचरम समयवर्ती भेद होते हैं । जो बारहवें गुणस्थानवर्ती वीतराग हैं वे छद्मस्थ हैं और जो तेरहवें चौदहवें गुणस्थान वाले हैं वे केवल हैं। बारहवें गुणस्थानवर्ती छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग के दो भेद हैं स्वयंबुद्ध और बुद्धबोधित । । इनके भी अवस्था भेद से दो-दो भेद होते हैं । केवली के दो भेद होते हैं - सयोगी केवली और अयोगी केवली । जो केवलज्ञान तो प्राप्त कर चुके हैं लेकिन अभी योगों से युक्त हैं वे संयोगी केवली कहलाते हैं। जो केवली अयोगी दशा प्राप्त कर चुके हैं वे अयोगी केवली कहलाते हैं। स्वामी भेद के कारण दर्शन में भी भेद होता है और दर्शन भेद से उनके आर्यत्व में भी भेद हो जाता है। T Jain Education International यहाँ पर वीतराग दर्शन आर्य के भेदों में उपशांत कषाय वीतराग दर्शन आर्य के वर्णन में स्वयंबुद्ध एवं प्रत्येक बुद्ध भेद नहीं किये हैं । क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य के वर्णन में ही ये भेद किये गये हैं। इससे यह फलित होता है कि स्वयंबुद्ध और प्रत्येकबुद्ध क्षीण कषाय वीतरागी ही बनते हैं । उपशांत कषाय वीतरागी नहीं। अर्थात् क्षीण कषाय वीतरागी के उस भव में उपशांत कषाय वीतरागता नहीं होती है। इस वर्णन से एवं भगवती सूत्र के शतक ९ उद्देशक ३२ में वर्णित सोच्चा केवली के वर्णन को देखते हुए एक भव में उपशम और क्षपक दोनों श्रेणियाँ नहीं होती है। अर्थात् जिस भव उपशम श्रेणी की जाती है उस भव में फिर क्षपक श्रेणी नहीं होती है । अर्थात् चरम शरीरी जीव उस भव में एक क्षपक श्रेणी ही करता है। स्वयंबुद्ध और प्रत्येकबुद्ध जीव क्षपक श्रेणी ही करते हैं एवं तद्भव मोक्षगामी होते हैं, यहाँ पर स्वयंबुद्धता और प्रत्येकबुद्धता तो चारित्रिक बोध की अपेक्षा समझी जाती है । उपदेश रुचि वाले भी स्वयं बुद्ध एवं प्रत्येक बुद्ध बन सकने में बाधा नहीं समझी जाती है जैसे नमी राजर्षि साधुओं के उपदेश सुने हुए होने पर भी प्रत्येक बुद्ध बने ही थे। अतः ठाणाग सूत्र में - निसर्ग सम्यग्दर्शन के प्रतिपाती, अप्रतिपाती, भेद बताने से उपशम श्रेणी वालों का उसी भव में मोक्ष जाना सिद्ध होता ही नहीं है । निसर्ग चारित्र एवं चरम शरीरी के चारित्र को यदि प्रतिपाती (गिरने वाला) बताया जाता तो एक भव में उपशम व क्षपक दोनों श्रेणियाँ सिद्ध होती । किन्तु ऐसा आगम में कहीं पर भी नहीं बताया गया है। अपितु स्वयंबुद्ध आदि के एवं सोच्चा केवली के उपशांत वेद व कषाय नहीं बताने से 'एक भव में दोनों श्रेणियों का नहीं होना, ही आगम से सिद्ध होता है। - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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