SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दूसरा स्थान पद - भवनवासी देव स्थान १९१ *************************************************************** ******************** वग्घारित (प्रलंबित) माल्यदाम कलाप-ऊपर से नीचे तक लटकती हुई विपुल युगल पुष्पमालाओं से युक्त, कालागरु-पवर कुंदुरुक्क-तुरुक्क धूव मघमघंत गंधुद्धयाभिरामा - कालागुरु-अगर, प्रधान चीडा लोबान तथा धूप की महकती हुई सुगंध से रमणीय, अच्छरगण संघसंविगिण्णा - अप्सरा गण के संघों से व्याप्त, दिव्व तुडिय सद्द संपणइया - दिव्य वाद्यों के शब्दों से शब्दायमान, महिड्डिया - महर्द्धिक-भवन परिवार आदि महान् ऋद्धिवाले, महज्जुइया - महाद्युति-शरीर और आभूषणों की महान् द्युति-कांति वाले, महब्बला - महाबल-महान बल वाले, महायसा - महान् यश वाले, महाणुभागा - महान् अनुभाग, महासोक्खा - महान् सुख वाले, हारविराइयवच्छा - हारविराजितवक्षा-जिनका वक्ष स्थल हार से सुशोभित है, कडग तुडिय थंभियभुया - कटकत्रुटित स्तम्भित भुजा-कड़ों और बाजुबन्दों से स्तम्भित भुजा वाले, अंगद कंडल मद गंड तल कण्णपीढधारी - अंगद. कण्डल और कपोलों को स्पर्श करने वाले कर्णपीठ को धारण करने वाले, विचित्त माला मउलि मउडा - विचित्र माला मौलि मुकुटा - जिनके मस्तक पर विचित्र माला और मुकुट हैं, कल्लाणग पवरवत्थ परिहिया - कल्याणक प्रवर वस्त्र परिहिता-कल्याणकारी श्रेष्ठ वस्त्र पहने हुए, कल्लाणग पवर मल्लाणुलेवणधरा - कल्याणकारी उत्तम पुष्प की माला और विलेपन के धारक, भासुरबोंदि पलंब वणमालधरा - देदीप्यमान शरीर और लम्बी लटकती हुई वनमाला के धारक, साणं साणं - अपने अपने, महयाहय णट्ट गीय वाइय तंति तल ताल तुडिय घणमुइंग पडुप्पवाइय रवेणं - महान् आहत से (जोरों से) नृत्य, गीत, वादित तल, ताल, त्रुटित और घन मृदंग के बजाने से उत्पन्न महाध्वनि के साथ, आणाईसर - . आज्ञया ईश्वर आज्ञेश्वरः-अपनी आज्ञा को पालन कराने में समर्थ, सेणावच्चं - सेनापत्य-सेनापतिपना, आहेवच्चं - अधिपतिपना अर्थात स्वामीपना अर्थात रक्षक पणा, पोरेवच्चं - पौरपत्य-सब आत्मियजनों का अग्रेसरपना, सामित्तं - नायकपना अर्थात् नेतापना, महित्तं - भर्तृत्व अर्थात् पोषक, महत्तरगतं - बडप्पन, किंकरामर दंडोवरक्खिया - किंकरामर दण्डोपरक्षिताः-किंकर अर्थात् अभियोगिक देवों के दण्डों के द्वारा जिनकी रक्षा की हुई है। - भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक और अपर्याप्तक भवनवासी देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? हे भगवन् ! भवनवासी देव कहाँ रहते हैं ? उत्तर - हे गौतम ! एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर एक हजार योजन अवगाहन कर और नीचे भी एक हजार योजन छोड़ कर एक लाख अठहत्तर हजार योजन मध्य भाग में भवनवासी देवों के सात करोड़ बहत्तर लाख भवनावास हैं। ऐसा कहा गया है। वे भवन बाहर से गोल और भीतर से समचतुरस्र (चौकोण) तथा नीचे के भाग में कमल की कर्णिका के आकार के हैं। उन भवनों के चारों ओर जिनका अंतर स्पष्ट प्रतीत होता है ऐसी गहरी और विस्तीर्ण खाइयाँ और परिखाएँ हैं। वे भवन यथास्थान प्राकारों (परकोटों) अटारियों, कपाटों, तोरणों और प्रतिद्वारों से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy