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तीसरा बहुवक्तव्यता पद - भवसिद्धिक द्वार
सूत्र
मनोविज्ञान सहित जो पंचेन्द्रिय प्राणी हैं उन्हें संज्ञी कहते हैं । वाचकमुख्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ द्वितीय अध्याय में कहा है- "संज्ञिनः समनस्का । "
अर्थात् - जो मन सहित हैं वे संज्ञी कहलाते हैं।
प्रस्तुत सूत्र में संज्ञी, असंज्ञी और नो- संज्ञी नो-असंज्ञी जीवों की अल्पबहुत्व का वर्णन किया गया है। सबसे थोड़े जीव संज्ञी हैं क्योंकि मन वाले जीव ही संज्ञी होते हैं, उनसे नो-संज्ञी नो-असंज्ञी जीव अनन्त गुणा हैं क्योंकि संज्ञी और असंज्ञी से रहित ऐसे सिद्ध जीव संज्ञी से अनंत गुणा हैं। उनसे असंज्ञी अनन्त गुणा हैं क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव सिद्ध भगवन्तों से अनन्त गुणा हैं।
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॥ उन्नीसवां संज्ञी द्वार समाप्त ॥
२०. बीसवां भवसिद्धिक द्वार
एएसि णं भंते! जीवाणं भवसिद्धियाणं अभवसिद्धियाणं णोभवसिद्धिया णोअभवसिद्धियाणं च कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया
वा?
गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा अभवसिद्धिया, णोभवसिद्धिया णोअभवसिद्धिया अनंत गुणा, भवसिद्धियां अनंत गुणा ॥ २० दारं ॥ १८९ ॥
भावार्थ - प्रश्न हे भगवन्! इन भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक और नोभवसिद्धिक-नोअभव
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सिद्धिक जीवों में कौन किन से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ?
उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े जीव अभवसिद्धिक हैं, उनसे नो भवसिद्धिक-नो अभवसिद्धिक जीव अनंत गुणा हैं, उनसे भवसिद्धिक जीव अनंत गुणा हैं।
विवेचन प्रश्न भव सिद्धिक किसको कहते हैं ?
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उत्तर " भवे भवैर्वा सिद्धिर् यस्स असौ भवसिद्धिकः । भविष्यती इति भवा भाविनी सा सिद्धिर् निर्वृत्ति यस्य स भवसिद्धिकः । "
अर्थ - एक भव में या कुछ अनेक भवों में जिसकी सिद्धि अवश्य है उसको भवसिद्धिक कहते हैं। भवसिद्धिक की दूसरी व्युत्पत्ति जो लिखी है उसका भी अर्थ यही है कि जिन जीवों के सिद्धि (मोक्ष) प्राप्त करने की योग्यता होती है। उनको भवसिद्धिक कहते हैं । भवसिद्धिक का दूसरा नाम
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'भव्य" भी है जिसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है - " भवितुं योग्यः भव्यः । "
अर्थ - जो सिद्धि (मोक्ष) जाने के योग्य है उसे भव्य (भवी) कहते हैं । भवसिद्धिक से विपरीत
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