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________________ २२४ प्रज्ञापना सूत्र ************** *************************** **************************************** पभासेमाणा। ते णं तत्थ साणं साणं जोइसिय विमाणावास सयसहस्साणं, चउण्हं सामाणिय-साहस्सीणं, चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणीयाणं, सत्तण्हं अणीयाहिवईणं, सोलसण्हं आयरक्ख देवसाहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं जोइसियाणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं जाव विहरंति॥१२०॥ ___ कठिन शब्दार्थ - बहुसम रमणिज्जाओ भूमिभागाओ - बहुत सम रमणीय भूमि भाग से, उप्पइत्ता- ऊपर जाने पर, जोइसविसए - ज्योतिषियों का विषय, अब्भुग्गयमूसियपहसिया - चारों दिशाओं में फैली हुई कांति से उज्वल, विविह मणि रयण भत्तिचित्ता - अनेक प्रकार की मणियों एवं रत्नों से चित्रित, वाउछ्य विजय वेजयंती पडागा - वायु से प्रेरित विजय वैजयंती पताकाओं से युक्त तथा, छत्ताइछत्त कलिया - छत्रातिछत्रों से अर्थात् एक छत्र के ऊपर दूसरा छत्र और दूसरे के ऊपर तीसरा छत्र। इस प्रकार छत्रों से सुशोभित, तुंगा - तुंग-बहुत ऊँचे, गगणतलंम अहिलंघमाणसिहरा - उनके शिखर आकाश तल को छूने वाले, जालंतर रयण पंजलुम्मिलियव्व - जालियों में रत्न जड़े हुए है पंजर यानी डिब्बे में से निकाले हुए के समान चमकदार, मणि कणगथूभियागा - सोने के शिखरों पर मणिया जड़ी हुई, वियसिय सयवत्त पुंडरीया - विकसित शत पत्र पुण्डरीक कमल के समान, तिलय रयणद्धचंद चित्ता - रत्नों के तिलक और अर्द्ध चन्द्रादि छापों से चित्रित, तवणिजरुइल वालुया पत्थडा - तपनीय सोने की बालु का के प्रस्तट। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक ज्योतिषी देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन् ! ज्योतिषी देव कहाँ निवास करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के अत्यंत सम एवं रमणीय भूमिभाग से सात सौ नब्बे योजन की ऊंचाई पर एक सौ दस योजन विस्तृत एवं तिरछे असंख्यात योजन प्रमाण क्षेत्र में ज्योतिषी देवों का विषय-निवास है। यहाँ ज्योतिषी देवों के तिरछे असंख्यात लाख ज्योतिषी विमान है। ऐसा कहा गया है। वे विमान आधे कवीठ के आकार के हैं और सर्व स्फटिकमय हैं। वे चारों ओर से निकली हुई और सभी दिशाओं में फैली हुई प्रभा से श्वेत हैं। विविध प्रकार के मणि स्वर्ण और रत्नों की छटा से चित्र-विचित्र हैं। वायु से उड़ी हुई विजय वैजयंती पताका और छत्र के ऊपर दूसरे छत्र आदि से युक्त, बहुत ऊँचे गगन तल चुम्बी शिखरों वाले हैं। उनकी जालियों के बीच लगे हुए रत्न ऐसे लगते हैं मानों पिंजरे से बाहर निकाले गए हों। मणियों और रत्नों की स्तूपिकाओं (शिखरों) से युक्त जिनमें शतपत्र और पुंडरीक कमल खिले हुए हैं। तिलकों और रत्नमय अर्द्धचन्द्रों से चित्र विचित्र, अनेक प्रकार की मणिमय मालाओं से सुशोभित अंदर और बाहर से कोमल (चिकने) हैं। उनके प्रस्तट (भूमि पीठ) तपनीय-सुवर्ण की मनोहर बालु वाले हैं। वे सुखद स्पर्श वाले, श्री-शोभा युक्त सुंदर रूप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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