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________________ दूसरा स्थान पद - नैरयिक स्थान १७५ ****************** *****- 09-04the te *** ********** *** *********0 9 -10-14-9- %2** केवइयं च णं पभू ! ते असुरकुमाराणं देवाणं अहे गइविसए पण्णत्ते? गोयमा! जाव अहेसत्तमाए पुढवीए तच्चं पुण पुढविं गया य गमिस्संति य। किं पत्तियण्णं भंते! असुरकुमारा देवा तच्चं पुढविं गया य गमिस्संति य? ___ गोयमा! पुव्ववेरियस्स वा वेदण उदीरणयाए पुव्वसंगइयस्स वा वेदण उवसामणयाए, एवं खलु असुरकुमारा देवा तच्चं पुढत्रिं गया च गमिस्संति य। अर्थ - हे भगवन् ! असुरकुमार देवों का नीचे कहाँ तक गति का विषय है? उत्तर - हे गौतम ! सातवीं नरक तक असुरकुमार देवों का नीचे गति का विषय (शक्ति) है किन्तु तीसरी नरक तक गये हैं, जाते हैं और जायेंगे। प्रश्न - हे भगवन् ! वे तीसरी नरक तक क्यों जाते हैं ? उत्तर - हे गौतम! अपने पूर्वभव के वैरी नैरयिक जीव को दुःख देने के लिये और पूर्व भव के मित्र नैरयिक जीव को सुख उपजाने के लिए तीसरी नरक तक भूतकाल में गये हैं, वर्तमान में जाते हैं और भविष्यत्काल में भी जायेंगे। यही बात वाचकमुख्य उमास्वाति ने अपने तत्त्वार्थ सूत्र के तीसरे अध्याय में कहीं है। यथा - परस्परोदीरितदुःखाः॥५॥ संक्लिष्टासुरोददीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः॥५॥ अर्थ - पहली नरक से लेकर सातवीं नरक तक के नैरयिक परस्पर लड़ कर झगड़ कर एक दूसरे को दुःख पहुँचाते हैं। अशुभ विचार वाले परमाधार्मिक देव चौथी नरक से पहले अर्थात् तीसरी नरक तक जाकर नैरयिक जीवों को कष्ट पहुँचाते हैं। उपरोक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि परमाधार्मिक देव तीसरी नरक तक ही जाते हैं। इससे आगे नहीं जाते। नोट - कुछ लोग नरक शब्द का अर्थ इस प्रकार कर देते हैं - - "न+अर्क" अर्थात् जहाँ सूर्य नहीं हैं उसको 'नर्क' कहते हैं। परन्तु यह अर्थ एकदम गलत है क्योंकि प्रथम तो यह बात है कि शब्द 'नर्क' नहीं है किन्तु 'नरक' है। दूसरी बात यह है कि ऊपर और नीचे दोनों तरफ मिलाकर सूर्य का प्रकाश उन्नीस सौ योजन ही तिरछा लोक में पड़ता है। ऊर्ध्वलोक में अर्थात् देवलोकों में सूर्य का प्रकाश नहीं पड़ता है परन्तु उनको 'नर्क' नहीं कहा जा सकता अतः ऊपर जो नरक का अर्थ दिया है वह यथार्थ है। . कहि णं भंते! रयणप्पभा पुढवी जेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! रयणप्पभा पुढवी जेरइया परिवसंति? गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तर-जोयण सयसहस्स बाहल्लाए उवरि एगं जोयण सहस्समोगाहित्ता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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