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________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - दिशा द्वार २८३ * ** * * * * * * * * * * ** * ************************************************* विवेचन - सबसे कम मनुष्य दक्षिण और उत्तर दिशा में हैं क्योंकि इन दिशाओं में पांच भरत और पांच ऐरवत क्षेत्र छोटे हैं उनसे पूर्व दिशा में संख्यात गुणा हैं क्योंकि वहां क्षेत्र संख्यात गुणे बड़े हैं। उनसे भी पश्चिम दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि वहां अधोलौकिक ग्राम हैं और वहां मनुष्यों की संख्या बहुत है। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा भवणवासी देवा पुरच्छिम पच्चत्थिमेणं, उत्तरेणं असंखिज्ज गुणा, दाहिणेणं असंखिज गुणा। भावार्थ - दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े भवनवासी देव पूर्व और पश्चिम में हैं। उनसे उत्तर दिशा में असंख्यात गुणा और उनसे भी दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं। विवेचन - सबसे थोड़े भवनवासी देव पूर्व और पश्चिम दिशा में हैं क्योंकि इन दोनों दिशाओं में उनके भवन थोड़े हैं। उनसे उत्तर में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि स्वस्थान होने से वहां उनके बहुत भवन हैं। उनसे भी दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि वहां प्रत्येक निकाय के चार चार लाख भवन अधिक हैं तथा बहुत से कृष्णपाक्षिक जीव वहां उत्पन्न होते हैं अत: वे असंख्यात गुणा अधिक कहे गये हैं। . दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा वाणमंतरा देवा पुरच्छिमेणं, पच्चत्थिमेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया। भावार्थ - दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े वाणव्यन्तर देव पूर्व दिशा में हैं, उनसे पश्चिम दिशा में विशेषाधिक, उनसे उत्तर दिशा में विशेषाधिक और उनसे भी दक्षिण दिशा में विशेषाधिक हैं। विवेचन - जहां पोलार (पोले स्थान) भाग हैं वहां वाणव्यंतर देवों का संचरण होता है, ठोस भाग में नहीं। पूर्व दिशा में सघन (ठोस) भाग अधिक होने से वहां वाणव्यंतर देव थोड़े हैं। उनसे पश्चिम दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि वहां अधोलौकिक ग्रामों में पोलार अधिक है उनसे उत्तर दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि वहां स्वस्थान होने से नगरावासों की बहुलता है। उनसे भी दक्षिण दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि वहां बहुत से नगर हैं। प्रश्न - वाणव्यन्तर देवों का अल्प-बहुत्व वायुकाय के समान कैसे है? क्योंकि अधोलौकिक ग्रामों के कारण वायुकाय तो बढ़ी परन्तु वाणव्यन्तर देवों के नगरों की संख्या घट जायेगी। उत्तर - समय क्षेत्र (अढ़ाई द्वीप) में वाणव्यन्तर देवों के नगर कम होने की सम्भावना लगती है क्योंकि पूर्व महाविदेह की विजयें भी नौ सौ योजन की ऊँडाई वाली हो सकती है अतः वहाँ वाणव्यन्तर देवों के नगर नहीं रह सकते हैं। यदि होवे भी तो उत्तर और दक्षिण दिशा में हो सकते हैं। अतः वाणव्यन्तरों के नगर कम होने की सम्भावना नहीं है। अधोलौकिक ग्रामों में वृक्ष आदि अधिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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