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प्रज्ञापना सूत्र
मंगलाचरण
ववगय जर-मरण - भए सिद्धे अभिवंदिऊण तिविहेण ।
वंदामि जिणवरिंदं तेलोक्क गुरुं महावीरं ॥ १ ॥ कठिन शब्दार्थ - ववगयजर-मरण भए जरा, मरण और भय से रहित, अभिवंदिऊण अभिवंदन (नमस्कार) करके, जिणवरिंदं - जिनवरेन्द्र ( तीर्थंकर) को, तेलोक्क गुरुं - त्रैलोक्य (तीन लोक) के गुरु को।
भावार्थ - जिनके जरा, मरण और भय नष्ट हो चुके हैं ऐसे सिद्धों को त्रिविध योग-मन, वचनं और काया से नमस्कार करके तीन लोक के गुरु, जिनेश्वर भगवंतों में श्रेष्ठ ऐसे भगवान् श्री महावीर स्वामी को वन्दना करता हूँ ।
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विवेचन - यह प्रज्ञापना सूत्र सम्यग् ज्ञान का कारण होने से और परंपरा से मोक्ष पद का साधन होने से श्रेय रूप है। इसलिए इसमें विघ्न न आवे अतः विघ्न समूह की शान्ति के लिये और शास्त्र मंगल रूप है यह शिष्य को बताने के लिए स्वतः मंगल रूप होते हुए भी शास्त्र के आदि (प्रारंभ), में, मध्य में और अन्त में मंगल करना चाहिए। उसमें आदि मंगल ( प्रारम्भिक मंगल) शास्त्र के अर्थ को निर्विघ्न रूप से पार पाने के लिये है । मध्य मंगल ग्रहण किये हुए शास्त्रार्थ को स्थिर करने के लिए है। और अन्त मंगल शिष्य प्रशिष्य आदि की परम्परा का विच्छेद न हो इसलिये किया जाता है ।
ववगयजरमरणभए.....इस गाथा से 'आदि मंगल' कहा है क्योंकि इष्ट देव की स्तुति परम
मंगल रूप है।
उपयोग पद में 'कइविहेणं भंते! उवओगे पण्णत्ते ? - 'हे भगवन् ! उपयोग कितने प्रकार का कहा है- इत्यादि रूप से मध्य मंगल कहा है। क्योंकि उपयोग ज्ञान स्वरूप है और ज्ञान कर्म क्षय का प्रधान कारण होने से मंगल स्वरूप है। 'ज्ञान कर्म क्षय का प्रधान कारण है' यह बात असिद्ध है ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि इस संबंध में आगम में स्पष्ट कहा है -
"जं अण्णाणी कम्मं खवेइ, बहुयाहिं वासकोडीहिं ।
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तं णाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेणं ॥"
अर्थ अज्ञानी जिन कर्मों को करोड़ों वर्ष में क्षय करता है उसे तीन गुप्ति वाला ज्ञानी श्वासोच्छ्वास मात्र में क्षय कर देता है।
अंत में समुद्घात पद में केवली समुद्घात समाप्त होने के बाद सिद्धाधिकार की इस गाथा से अंतिम मंगल कहा है
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