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प्रथम प्रज्ञापना पद - वनस्पतिकायिक जीव प्रज्ञापना
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पुत्तंजीवय अरिटे बिभेलए हरिडए य भिल्लाए (भल्लाए)। उंबेभरिया-खीरिणि बोद्धव्वे धायइ पियाले॥२॥ पूईय णिंब करंजे (पूई करंज) सण्हा तह सीसवा य असणे य। पुण्णाग-णागरुक्खे सीवणि तहा असोगे य॥३॥
जे यावण्णे तहप्पगारा। एएसि णं मूला वि असंखिज जीविया, कंदा वि, खंधा वि, तया वि, साला वि, पवाला वि। पत्ता पत्तेय जीविया, पुप्फा अणेग जीविया, फला एगट्ठिया। सेत्तं एगट्ठिया॥३२॥ ____ कठिन शब्दार्थ - णिंब - नीम, अंब - आम, सल्लइ - सल्लकी, मोयइ - मोचकी, पुतंजीवियपुत्रजीवक, अरिद्वे - अरिष्ट, असंखिज्ज जीविया - असंख्यात जीव वाले, कंदा - कंद, खंधा - स्कंध, तया - त्वचा, साला - शाखा, पवाला - प्रवाल।
भावार्थ - प्रश्न - एकास्थिक वृक्ष कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - एकास्थिक वृक्ष अनेक प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं -
नीम, आम, जामुन, कोशम्ब (कोशाम्र) शाल (राल का वृक्ष) अंकोल्ल (अखरोट या पिस्ता), पीलु, सेलु (श्लेष्मातक-गुंदा) सल्लकी (हस्ती प्रिय वनस्पति), मोचकी, मालुक (कृष्ण तुलसी), बकुल (बोरसली), पलाश (खाखरा), करंज॥१॥
पुत्रजीवक, अरिष्ट (अरीठा) बिभीतक (बहेडा), हरितक (हरडे), भिलामा, उंबेभरिका, क्षीरिणी (गंभारी) धातकी (धावडी), प्रियाल (रायण का वृक्ष अथवा चारोली का वृक्ष)॥ .. पूति(निंब)करंज, सुण्हा (श्लक्ष्णा) शिंशपा-शीशम, अशन, पुन्नाग (नागकेसर) नागवृक्ष, श्रीपर्णी और अशोक। इसी प्रकार के अन्य जितने भी वृक्ष हों उन सबको एकास्थिक ही समझना चाहिये। इनके मूल, कंद, स्कंध, त्वचा, शाखा और प्रवाल असंख्यात जीवों वाले होते हैं किन्तु इनके पत्ते प्रत्येक जीव वाले होते हैं, पुष्प अनेक जीव वाले होते हैं और फल एकास्थिक-एक ही बीज वाले होते हैं। इस प्रकार एकास्थिक वृक्ष कहे गये हैं।
विवेचन - शंका - मूल और कंद में क्या अन्तर है?
समाधान - भूमि में तिरछा फैलने वाला मूल होता है तथा वह कन्द से नीचे होता है। चौड़ाई में फैलने वाला तथा स्कन्ध के नीचे रहने वाला कंद होता है वह तने की अपेक्षा विस्तृत होता है।
एकास्थिक वृक्षों में कितनेक प्रसिद्ध हैं और कितनेक अप्रसिद्ध हैं। किसी देश विशेष में प्रसिद्ध भी हो सकते हैं।
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