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प्रज्ञापना सूत्र
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ऊपर की एक पहली गाथा में श्यामाचार्य को २३ वें पाट पर बताया गया है वह लिपी प्रमाद संभव है टीका में भी इसी का अनुसरण करते हुए इनको २३वें पाट पर बता दिया है। किन्तु वह उचित नहीं लगता है क्योंकि प्राचीन गाथा में (रत्न संचय प्रकरण पत्र ३२ गाथा ५५ ) बताया है कि
"सिरिवीरा ओगएसु, पणतीससहिएसु तिसयवरिसेसु ।
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पढमो कालगसूरि, जाओ सामज्जणामुत्ति ॥ ५५ ॥
उपरोक्त गाथा में प्रज्ञापना सूत्रकर्ता श्री श्यामाचार्य अपर नाम निगोद व्याख्याता कालकसुरि का समय वीर निर्वाण संवत् ३३५ बताया गया है। यद्यपि पट्टावलियों ने निगोद व्याख्याता कालकाचार्य को १२वें पट्ट पर माना है परन्तु आगम के अनुसार स्थानांग सूत्र ठाणा ३ उद्देश्क ४ में तथा कल्पसूत्र में भगवान् महावीर स्वामी की युगान्तरकृत भूमि बताते हुए तीसरे पुरुष युग तक मोक्ष जाना बताया है अर्थात् भगवान् प्रथम पुरुष युग में, सुधर्मा स्वामी दूसरे पुरुष युग में तथा जम्बू स्वामी तीसरे पुरुष युग रूप में मोक्ष पधारे। इस प्रकार तीन पाट तक मोक्ष जाने का वर्णन है।
माथुरीयुग प्रधान पट्टावली में श्यामाचार्य को तेरहवें (भगवान् से चौदहवें ) एवं वालभी युगप्रधान . पट्टावली में १२वें पट्टधर कालकाचार्य के नाम से होना बताया है। भगवान् सहित १३वें पट्टधर मानना ही आग़म दृष्टि से उचित है । नन्दी सूत्र के श्रुतज्ञान के वर्णन में बताया है कि "दस पूर्वी एवं इससे अधिक ज्ञान वालों की रचना ही सम्यक् श्रुत (आगम) रूप में मानी जाती है।" यदि श्यामाचार्य को २३वें पाट पर माना जायेगा तो ये (श्यामाचार्य) आर्य रक्षित से भी बाद में होने से साढ़े नवपूर्वी से भी कम होंगे। उपलब्ध ३२ आगमों में सबसे अर्वाचीन (अन्तिम) अनुयोग द्वार को आर्यरक्षित की रचना माना जाता है शेष सभी आगमों का रचनाकाल विक्रम पूर्व माना गया है अतः प्रज्ञापना सूत्र की रचना बहुत पहले होने से रचनाकार श्यामाचार्य को १३वें पट्ट पर मानना ही उचित लगता है ।
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प्रज्ञापना सूत्र के प्रारम्भ में दी गई इन दो गाथाओं को अन्यकर्तृक तो माना ही जाता है। कुछ भी हो, श्यामाचार्य को २३वें पट्टधर मानने में अनेक उलझने आती हैं । अतः 'तेरसइमेणं' की जगह 'तेवीसइमेण' पाठ लिपी प्रमाद से हो गया हो, ऐसा संभव है। अतः अनेक दृष्टियों से विचार करने पर श्यामाचार्य को १३वें पट्टधर मानना ही उचित लगता है। निश्चय तो ज्ञानी गम्य ही है।
वाचनाचार्य आर्य श्याम के परिचय में ऊपर यह बताया जा चुका है कि आर्य स्वाति के पश्चात् तेरहवें वाचनाचार्य के पद पर तथा आर्य गुणसुन्दर के पश्चात् बारहवें युग प्रधानाचार्य के पद पर आर्य श्याम को नियुक्त किया गया। वीर निर्वाण संवत् ३३५ से ३७६ तक इन दोनों महत्त्वपूर्ण पदों पर निरन्तर ४१ वर्ष तक रह कर आर्य श्याम ने शासन की महती सेवा की।
श्याम का अर्थ कृष्ण (काला) होता है। इसलिए श्यामाचार्य का दूसरा नाम कालकाचार्य भी है।
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