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प्रथम प्रज्ञापना पद - प्रस्तावना
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कालकाचार्य नाम के आचार्य चार हुए हैं। पण्णवणा सूत्र का पूर्वो से उद्धार करने वाले यह प्रथम . कालकाचार्य हैं। ये दस पूर्वी थे।
प्रथम कालकाचार्य के लगभग एक शताब्दी पश्चात् वीर निर्वाण की पांचवी शताब्दी में द्वितीय कालकाचार्य हुए। उत्तराध्ययन सूत्र की टीका, बृहत्कल्प भाष्य और निशीथ चूर्णि के आधार पर उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है - धारावास के राजा वैरसिंह और सुरसुन्दरी राणी के पुत्र का नाम कालक
और पुत्री का नाम सरस्वती था। दोनों भाई बहनों में सात्विक प्रगाढ़ स्नेह था। एक समय इन दोनों ने जैन मुनि का धर्मोपदेश सुना। वैराग्य जागृत हुआ और दोनों भाई बहनों ने दीक्षा अङ्गीकार कर ली। किसी समय आर्य कालक अपने श्रमण संघ के साथ विहार करते हुए उज्जयिनी पधारे। नगर के बाहर उद्यान में ठहरे। उनके दर्शन करने के लिए दूसरी साध्वियों के साथ साध्वी सरस्वती भी आयी। सरस्वती गुणों से भी सरस्वती के समान थी और रूप सौंदर्य में भी अनुपम थी। उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल ने उसे मार्ग में जाते हुए देखा। उसके अनुपम रूप लावण्य पर मुग्ध होकर गर्दभिल्ल ने अपने राज पुरुषों द्वारा साध्वी सरस्वती का बलात् अपहरण करवा कर उसे अपने अन्त:पुर में पहुँचा दिया। जब आर्य कालक को इस घटना का पता चला तो वे बहुत दुःखी हुए। राजा गर्दभिल्ल को समझाने का यथा शक्य प्रयत्न किया परन्तु कामान्ध राजा ने साध्वी सरस्वती को पुनः नहीं लौटाया। उससे क्षुब्ध होकर आर्य कालक ने दूसरे राजाओं की सहायता लेकर गर्दभिल्ल राजा को राज्यच्युत करवा कर साध्वी सरस्वती को उससे मुक्त करवाया। साध्वी सरस्वती अपने शील धर्म में अखण्डित रही। फिर आर्य कालक ने
और सरस्वती ने पुन: नई दीक्षा धारण की। इसका समय वीर निर्वाण संवत् ४५३ होने का उल्लेख मिलता है। अनेक क्षेत्रों में विचरण करते हुए आर्य कालक उज्जयिनी (भडोच) पधारे और वहाँ चातुर्मास किया। उस समय वहाँ बालमित्र नाम का राजा राज्य करता था। राजा की प्रतिकूलता के कारण चातुर्मास में ही विहार करना पड़ा। विहार कर के प्रतिष्ठानपुर पधारे। वहाँ का राजा सातवाहन जैन धर्मावलम्बी और परम श्रद्धालु श्रावक था। इसलिए कालकाचार्य का बड़े आदर सत्कार और उल्हास से साथ नगर प्रवेश करवाया। जब भाद्रपद शुक्ला पंचमी का दिन आने वाला था तब राजा ने निवेदन किया कि - हे भगवन् ! पंचमी के दिन पूर्व परम्परानुसार मुझे इन्द्र महोत्सव में सम्मिलित होना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में यदि पंचमी के दिन पर्वाराधन किया जायेगा तो मैं साधु वन्दन, धर्म श्रवण और सम्यक् पर्वाराधन से वंचित रह जाऊँगा। अतः भादवा सुदी छठ के दिन संवत्सरी की जाय तो ठीक रहेगा। तब आचार्य श्री ने कहा कि पर्व तिथि का अतिक्रमण तो नहीं हो सकता। तब राजा सातवाहन ने कहा कि ऐसी दशा में एक दिन पहले भादवा सुदी चतुर्थी को पर्वाराधन कर लिया जाय तो क्या हानि है ? राजा की बात को स्वीकार करके आर्य कालकाचार्य ने कहा कि ठीक है ऐसा हो सकता है। इस प्रकार
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