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________________ Jain Education International [4] प्रत्येक पद की समाप्ति पर 'पण्णवणाए भगवईए' कह कर पन्नवणा के लिए "भगवती " विशेषण प्रयुक्त किया गया है। यह विशेषण इस शास्त्र की महत्ता का सूचक है। इतना ही नहीं अनेक आगम पाठों को "जाव" आदि शब्दों से संक्षिप्त कर पन्त्रवणा देखने का संकेत किया है। समवायांग सूत्र के जीव अजीव राशि विभाग में प्रज्ञापना के पहले, छठे, सतरहवें, इक्कीसवें, अट्ठाइसवें, तेतीसवें और पैतीसवें पद देखने की भलावण दी है तो भगवती सूत्र पनवणा सूत्र के मात्र सत्ताईसवें और इकतीसवें पदों को छोड़कर शेष ३४ पदों की स्थान-स्थान पर विषयपूर्ति कर लेने की भलामण दी गई है। जीवाभिगम सूत्र में प्रथम प्रज्ञापना, दूसरा स्थान, चौथा स्थिति, छठा व्युत्क्रांति तथा अठारहवें कायस्थिति पद की भलावण दी है। विभिन्न आगम साहित्य में पाठों को संक्षिप्त कर इसकी भलावण देने का मुख्य कारण यह है कि प्रज्ञापना सूत्र में जिन विषयों की चर्चा की गयी है उन विषयों का इसमें विस्तृत एवं सांगोपांग वर्णन है। इस सूत्र में मुख्यता द्रव्यानुयोग की है। कुछ गणितानुयोग व प्रसंगोपात इतिहास आदि के विषय भी इसमें सम्मिलित है । 'प्रज्ञा' शब्द का प्रयोग विभिन्न ग्रंथों में विभिन्न स्थलों पर हुआ है। जहाँ इसका अर्थ प्रसंगोपात किया गया है। कोषकारों ने प्रज्ञा को बुद्धि कहा है और इसे बुद्धि का पर्यायवाची माना है जबकि आगमकार महर्षि बहिरंग ज्ञान के अर्थ में बुद्धि का प्रयोग करते हैं एवं अंतरंग चेतना शक्ति को जागृत करने वाले ज्ञान को "प्रज्ञा" के अंतर्गत लिया है। वास्तव में यही अर्थ प्रासंगिक एवं सार्थक है । क्योंकि इसमें समाहित सभी विषय जीव की आन्तरिक और बाह्य प्रज्ञा को सूचित करने वाले हैं। चूंकि प्रज्ञापना सूत्र में जीव अजीव आदि का स्वरूप, इनके रहने के स्थान आदि का व्यवस्थित क्रम से सविस्तार वर्णन है एवं इसके प्रथम पद का नाम प्रज्ञापना होने से इसका नाम 'प्रज्ञापना सूत्र' उपयुक्त एवं सार्थक है। जैसा कि ऊपर बतलाया गया कि इस सूत्र में प्रधानता द्रव्यानुयोग की है और द्रव्यानुयोग का विषय अन्य अनुयोगों की अपेक्षा काफी कठिन, गहन एवं दुरुह है इसलिए इस सूत्र की सम्यक् जानकारी विशेष प्रज्ञा संपन्न व्यक्तित्व के गुरु भगवन्तों के सान्निध्य से ही संभव है। प्रज्ञापना सूत्र के रचयिता कालकाचार्य (श्यामाचार्य) माने जाते हैं । इतिहास में तीन कालकाचार्य प्रसिद्ध हैं १. प्रथम कालकाचार्य जो निगोद व्याख्याता के रूप में प्रसिद्ध है जिनका जन्म वीर नि० सं० २८० दीक्षा वीर निवार्ण सं० ३०० युग प्रधान आचार्य के रूप में वीर नि० सं० ३३५ एवं कालधर्म वीर नि० सं० ३७६ में होने का उल्लेख मिलता है। दूसरे गर्दभिल्लोच्छेदक कालकाचार्य का समय वीर नि० सं० ४५३ के आसपास का है एवं तीसरे कालकाचार्य जिन्होंने संवत्सरी पंचमी के स्थान पर चतुर्थी को मनायी उनका समय वीर निवार्ण सं० ९९३ के आसपास है । तीनों कालकाचार्यों में प्रथम कालकाचार्य जो श्यामाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हैं अपने युग के महान् प्रभावक आचार्य हुए। वे ही प्रज्ञापना सूत्र के रचयिता होने चाहिए। इसके आधार से प्रज्ञापना सूत्र का रचना काल वीर नि० सं० ३३५ से ३७६ के बीच का ठहरता है 1 - ************ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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