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तीसरा बहुवक्तव्यता पद - लेश्या द्वार
३२७ ********** अर्थात् - संस्कृत में "कष'' धातु है। जिसका अर्थ है पीड़ित होना। इस धातु से "कष" शब्द बना है। जिसकी व्युत्पत्ति ऊपर लिखी है। उससे "कषः" शब्द बनता है। जिसका अर्थ है संसार । जिसमें प्राणी पीड़ित होते हैं दुःखी होते हैं। वह कष अर्थात् संसार है। उस संसार परिभ्रमण का लाभ जिससे होता हो उसे कषाय कहते हैं। कषाय के उदय से ही संसार में परिभ्रमण होता है। जिन प्राणियों में कषाय पाया जाता है, उनको सकषायी कहते हैं।
वेद द्वार समाप्त होने पर अब कषाय द्वार कहते हैं - सबसे थोड़े अकषायी-कषाय रहित हैं क्योंकि सिद्ध और कितने ही ग्यारहवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान वाले) मनुष्य अकषायी होते हैं, उनसे मान कषायी-मान कषाय के परिणाम वाले अनन्त गुणा है क्योंकि इन छह जीव निकाय में मान कषाय का परिणाम होता है, उनसे क्रोध कषाय के परिणाम वाले विशेषाधिक हैं, उनसे माया कषाय के परिणाम वाले विशेषाधिक हैं, उनसे लोभ कषाय के परिणाम वाले विशेषाधिक हैं क्योंकि मान कषाय के परिणाम के काल की अपेक्षा क्रोधादि कषाय के परिणाम का काल उत्तरोत्तर विशेषाधिक होने से क्रोधादि कषाय वाले उत्तरोत्तर विशेषाधिक होते हैं। लोभ कषायी से सामान्य सकषायी-कषाय के परिणाम वाले विशेषाधिक हैं क्योंकि मान आदि कषायों का भी उसमें समावेश होता है। सकषायी शब्द से यहाँ कषायोदय का ग्रहण करना यानी सकषाय अर्थात् कषाय के उदय वाला।
.|| सातवां कषाय द्वार समाप्त॥
८. आठवां लेश्या द्वार एएसि णं भंते! जीवाणं सलेस्साणं किण्हलेस्साणं णीललेस्साणं काउलेस्साणं तेउलेस्साणं पम्हलेस्साणं सुक्कलेस्साणं अलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?
गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा संखिज्जगुणा, तेउलेस्सा संखिजगुणा, अलेस्सा अणंतगुणा, काउलेस्सा अणंत गुणा, णीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया, सलेस्सा विसेसाहिया॥ ८ दारं॥१७५॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सलेशी, कृष्णलेशी, नीललेशी, कापोतलेशी, तेजोलेशी, पद्मलेशी, शुक्ललेशी और अलेशी जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ?
उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े जीव शुक्ललेश्या वाले हैं, उनसे पद्म लेश्या वाले संख्यात गुणा हैं, उनसे तेजोलेश्या वाले संख्यात गुणा हैं, उनसे लेश्या रहित अनंत गुणा हैं, उनसे कापोत लेश्या वाले
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