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________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - संयत द्वार ३३३ ****************************************************************** * ************* गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा ओहिदसणी, चक्खुदंसणी असंखिज गुणा, केवलदंसणी अणंत गुणा, अचक्खुदंसणी अणंत गुणा ॥११ दारं॥१८०॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी और केवलदर्शनी जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े जीव अवधिदर्शनी हैं, उनसे चक्षुदर्शनी असंख्यात गुणा हैं, उनसे केवलदर्शनी अनंत गुणा हैं, उनसे अचक्षुदर्शनी अनंत गुणा हैं। विवेचन - प्रश्न - दर्शन किसे कहते हैं ? उत्तर - "दृश्यन्ते श्रद्धीयन्ते ज्ञायन्ते वा जीवाजीवादयः पदार्था अनेन अस्माद् अस्मिन् वा इति दर्शनम्।" अर्थ - संस्कृत में "दृशिर प्रेक्षणे" धातु है। इस धातु से दर्शन शब्द बनता है। जिसकी व्युत्पत्ति ऊपर दी गयी है। जिससे जीव अजीव आदि पदार्थ सामान्य रूप से जाने जाते हैं अथवा जीव आदि पदार्थों पर श्रद्धा की जाती है उसे दर्शन कहते हैं। ज्ञान द्वार समाप्त हुआ अब दर्शन द्वार कहते हैं - सबसे थोड़े अवधिदर्शनी हैं क्योंकि देव, नैरयिक और कितनेक संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों को अवधिदर्शन होता है, उनसे चक्षुदर्शनी असंख्यात गुणा हैं क्योंकि सभी देव, नैरयिक, गर्भज मनुष्य, संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय, असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय और चउरिन्द्रिय जीवों को चक्षुदर्शन होता है, उनसे केवलदर्शनी अनन्त गुणा हैं, क्योंकि सिद्ध भगवान् अनन्त हैं, उनसे अचक्षुदर्शनी अनन्त गुणा हैं क्योंकि वनस्पतिकाय सिद्ध भगवन्तों से भी अनन्त गुणा हैं। ||ग्यारहवां दर्शन द्वार समाप्त॥ १२. बारहवां संयत द्वार एएसिणं भंते! जीवाणं संजयाणं असंजयाणं संजयासंजयाणं णोसंजय णोअसंजय णोसंजयासंजयाणं च कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?.. गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा संजया, संजयासंजया असंखिज गुणा, णोसंजय णोअसंजय णोसंजयासंजया अणंत गुणा, असंजया अणंत गुणा॥१२ दारं॥१८१॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन संयत, असंयत, संयतासंयत और नो-संयत-नो-असंयत-नो संयतासंयत जीवों में कौन किन से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? १२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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