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________________ २० निर्विभागी अंश को समय कहते हैं। इसलिए उसमें देश और प्रदेश की कल्पना नहीं होती है । पूर्व समय का नाश होने के पश्चात् ही पीछे के समय का सद्भाव होता है इसलिए उसके समुदाय (समूह) नहीं होता है। असंख्यात समय की आवलिका आदि की कल्पना केवल व्यवहार के लिए की गयी है। लोक और अलोक की व्यवस्था का कारण धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय होने से सर्वप्रथम इनका कथन किया गया है। इन दोनों में भी मांगलिक होने से पहले धर्मास्तिकाय का ग्रहण किया है। इसका प्रतिपक्षी होने से धर्मास्तिकाय के बाद अधर्मास्तिकाय का ग्रहण किया है फिर लोकालोक व्यापी होने से आकाशास्तिकाय का ग्रहण है । इसके बाद लोक में समय क्षेत्र और उससे भिन्न क्षेत्र की व्यवस्था करने वाला होने से अद्धा समय का ग्रहण किया गया है। भावार्थ - प्रज्ञापना सूत्र रूपी- अजीव प्रज्ञापना से किं तं रूवी अजीव पण्णवणा ? रूवी अजीव पण्णवणा चउव्विहा पण्णत्ता । तं जहा - खंधा १ खंधदेसा २ खंधप्पएसा ३ परमाणु पोग्गला ४॥ कठिन शब्दार्थ - खंधा- स्कन्ध, परमाणु पोग्गला - परमाणु पुद्गल। और ४. परमाणु पुद्गल । - प्रश्न रूपी अजीव प्रज्ञापना कितने प्रकार की है ? उत्तर - रूपी अजीव प्रज्ञापना चार प्रकार की कही है - १. स्कन्ध २. स्कन्ध देश ३. स्कन्ध प्रदेश ******喘嗽喘 विवेचन प्रश्न स्कन्ध किसे कहते हैं ? Jain Education International उत्तर - 'स्कन्धाः स्कन्दन्ति शुष्यन्ति धीयन्ते च पुष्यन्ते पुद्गलानां विचटनेन चटनेन चेति स्कन्धाः ' अर्थ - पुद्गलों के पृथक् होने से जो घटता है और पुद्गलों के मिलने से जो वृद्धि को पाता है। वह 'स्कन्ध' कहलाता है। पुद्गल स्कन्धों की अनन्तता बताने के लिये यहाँ स्कन्ध शब्द में बहुवचन का प्रयोग किया गया है। क्योंकि द्रव्य से पुद्गलास्तिकाय अनन्त कही गयी है। तात्पर्य यह है कि एक, दो यावत् संख्यात परमाणुओं के मिलने से संख्यात प्रदेशी स्कन्ध बनता है। इसी तरह असंख्यात परमाणुओं के मिलने से असंख्यात प्रदेशी और अनन्त परमाणुओं के मिलने से अनन्त प्रदेशी स्कन्ध बनता है। अनन्त प्रदेशी स्कन्ध में से परमाणु अलग होते होते असंख्यात, संख्यात यावत् एक परमाणु तक हो जाता है। इस प्रकार परमाणुओं के मिलने से भी स्कन्ध बनते हैं और विचटन (अलग) होने से भी स्कन्ध बनते हैं। स्कन्ध देश - स्कन्धों के ही स्कन्ध रूप परिणाम का त्याग नहीं करने वाले ऐसे बुद्धि कल्पित For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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