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________________ दूसरा स्थान पद - वैमानिक देवों के स्थान २३५ ********** ************* ************************************** यस्याऽसौ शतक्रतुः । इदं हि कार्तिक श्रेष्ठि भवापेक्षया, तथाहि पृथिवीभूषणनगरे प्रजापालो नाम राजा कार्तिक नामा श्रेष्ठी। तेन श्राद्धप्रतिमानां शतं कृतं ततः शतक्रतुरिति ख्यातिः।" अर्थ - कार्तिक सेठ ने श्रावक की पांचवीं प्रतिमा का १०० बार पालन किया था। फिर दीक्षा लेकर काल धर्म (मृत्यु) को प्राप्त कर पहले देवलोक का इन्द्र बना है। इसलिये पूर्वभव की अपेक्षा इस इन्द्र के 'शतक्रतु' विशेषण लगता है। यह शतक्रतु विशेषण इसी शक्रेन्द्र के लिये लगता है। दूसरों के लिये नहीं। प्रश्न - हे भगवन् ! शक्रेन्द्र के लिये 'सहस्सक्ख' (सहस्राक्ष) यह विशेषण क्यों लगता है ? उत्तर - टीकाकार ने इस शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है - "सहस्रमणां यस्यासौ. सहस्राक्षः। शके, इन्द्रे। इन्द्रस्य हि किल मन्त्रिणां पञ्च शतानि सन्ति तदीयानां चाणांमिन्द्रप्रयोजने गवृत्ततया इन्द्रसम्बन्धित्वेन विवक्षणात् सहस्राक्षत्वमिन्द्रस्य।" अर्थ - शक्रेन्द्र के पांच सौ मंत्री हैं। उनकी एक हजार आँखें हैं। वे सब आँखें इन्द्र का हित देखने और करने रूप प्रयोजन में लगी रहती हैं। इसलिये वे सब आँखें इन्द्र की कहलाती हैं। इसलिए इन्द्र को सहस्राक्ष (एक हजार आँखों वाला) कहते हैं। __शक्रेन्द्र हाथ में वज्र रखता है। इसलिये उसको वज्रपाणि (पाणि का अर्थ हाथ होता है) कहते हैं। असुर आदि देवों के पुरों (नगरों) का विदाहरण (विनाश) करता है। इसलिये उसको पुरन्दर कहते हैं। मघ का अर्थ है "महामेघ"। वे महामेघ शक्रेन्द्र के वश में रहते हैं। इसलिये उसको मघवान् कहते हैं। पाक नाम का बलवान शत्रु उसका निकारण (पराभव) करने से इसको पाक शासन कहते हैं। रज रहित स्वच्छ वस्त्रों को धारण करता है इसलिये "अरजोऽम्बरवस्त्रधर' कहलाता है। कहि णं भंते! ईसाणाणं देवाणं पजत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! ईसाणग देवा परिवसंति? ___ गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहु सम रमणिजाओ भूमिभागाओ उड़े चंदिम सूरिय गह णक्खत्त तारारूवाणं बहूइं जोयणसयाई बहूइं जोयणसहस्साइं जाव उड्ढे उप्पइत्ता एत्थ णं ईसाणे णामं कप्पे पण्णत्ते। पाईण पडीणायए, उदीण दाहिणवित्थिपणे, एवं जहा सोहम्मे जाव पडिरूवे। तत्थ णं ईसाणगदेवाणं अट्ठावीसं विमाणावास सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। ते णं विमाणा सव्व रयणामया जाव पडिरूवा। तेसि णं बहुमज्झदेस-भागे पंच वडिंसया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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