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________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना १४३ ************************ ** ** *********** ** * ***** ********************* यों तो चारित्र के सभी भेद सावद्य योग विरति रूप है। इसलिए सामान्यतः सभी सामायिक ही हैं किन्तु चारित्र के दूसरे भेदों के साथ 'छेद' आदि विशेषण होने से उनका नाम आअर्थ भिन्न भिन्न बताया गया है। पहले चारित्र के साथ 'छेद' आदि विशेषण न होने से इसका नाम सामान्य रूप से सामायिक ही दिया गया है। सामायिक चारित्र के दो भेद हैं, इत्वर कालिक सामायिक और यावत्कथिक सामायिक। १. इत्वर कालिक सामायिक - इत्वर काल का अर्थ है-अल्प काल (थोड़ा समय)। अर्थात् भविष्य में दूसरी बार फिर सामायिक व्रत का व्यपदेश होने से जो अल्प काल की सामायिक हो, उसे इत्वर कालिक सामायिक कहते हैं। पहले और छेल्ले (अन्तिम) तीर्थंकर भगवान् के तीर्थ में जब तक शिष्य में महाव्रत का आरोपण नहीं किया जाता तब तक उस शिष्य के इत्वर कालिक सामायिक (छोटी दीक्षा) समझना चाहिये। ___ २. यावत्कथिक सामायिक - यावज्जीवन की सामायिक यावत्कथिक कहलाती है। बीच के बाईस तीर्थंकर भगवान् (पहले और छेल्ले-अंतिम तीर्थंकर भगवान् के सिवाय) के साधुओं के एवं महाविदेह क्षेत्र के तीर्थंकर भगवन्तों के साधुओं के यावत्कथिक सामायिक ही होती है क्योंकि इन तीर्थंकरों के शिष्यों को दूसरी बार सामायिक व्रत नहीं दिया जाता है। .. २. छेदोपस्थापनीय चारित्र - जिस चारित्र में पूर्व पर्याय का छेद एवं महाव्रतों में उपस्थान (आरोपण) होता है उसे छेदोपस्थापनीय (छेदोपस्थानिक) चारित्र कहते हैं। अथवा-पूर्व पर्याय का छेद करके जो महाव्रत दिये जाते हैं उसे छेदोपस्थानीय चारित्र कहते हैं। यह चारित्र भरत क्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र के प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थ में ही होता है, शेष तीर्थंकरों के तीर्थ में नहीं होता। छेदोपस्थापनीय चारित्र के दो भेद हैं - निरतिचार छेदोपस्थानीय और सातिचार छेदोपस्थानीय। निरतिचार छेदोपस्थापनीय - इत्वर सामायिक वाले शिष्य के एवं एक तीर्थंकर के तीर्थ से दूसरे तीर्थंकर के तीर्थ में जाने वाले साधुओं के जो व्रतों का आरोपण होता है वह निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र है। इसे बड़ी दीक्षा कहते हैं। यह सातवें दिन, चार महीने बाद और उत्कृष्ट छह महीने बाद दी जाती है। सातिचार छेदोपस्थापनीय - मूल गुणों का घात करने वाले साधु के जो व्रतों का आरोपण होता है वह सातिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र है। ३. परिहार विशुद्धि चारित्र - जिस चारित्र में परिहार तप विशेष से कर्म निर्जरा रूप विशेष शुद्धि होती है उसे परिहार विशुद्धि चारित्र कहते हैं । अथवा - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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