SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दूसरा स्थान पद - भवनवासी देव स्थान १९३ * * * अपने अपने लाखों भवनावासों, अपने अपने हजारों सामानिक देवों, अपने अपने त्रायस्त्रिंशक देवों, अपने अपने लोकपालों, अपनी अपनी अग्रमहिषियों, अपनी अपनी परिषदाओं, अपनी अपनी अनीकों (सेनाओं), अपने-अपने अनीकाधिपतियों (सेनाधिपतियों), अपने अपने आत्म रक्षक देवों का तथा अन्य बहुत से भवनवासी देवों और देवियों का आधिपत्य, अग्रेसरत्व, स्वामित्व, भर्तृत्व, महानता, आज्ञा से ईश्वरत्व (अपनी आज्ञा का पालन कराने का प्रभुत्व) एवं सेनापतित्व करते कराते हुए तथा पालन करते और दूसरों से कराते हुए नित्य प्रवर्तमान नृत्य, गायन, वादित, तंत्री, तल, ताल, त्रुटित और घन मृदंग बजाने से उत्पन्न महाध्वनि के साथ दिव्य प्रधान भोगने योग्य भोगों को भोगते हुए विचरते (रहते) हैं। विवेचन - रत्नप्रभा नामक पहली नरक के तेरह प्रस्तट और बारह अन्तर हैं। प्रस्तटों में नैरयिक जीव रहते हैं और बारह अन्तरों में से पहले और दूसरे अन्तर को छोड़ कर तीसरे अन्तर में असुरकुमार जाति के भवनपति देव रहते हैं। भवनपतियों के भवन रत्नों के बने हुए हैं। उन भवनों की सुन्दरता का वर्णन मूल पाठ के अनुसार भावार्थ में कर दिया गया है। वे भवन बाहर गोल हैं और भीतर चौकोण हैं। नीचे कमल की कर्णिका के आकार से स्थित हैं। उनके चारों और खाई और परिखा खदी हई है। जो ऊपर और नीचे समान विस्तार वाली हो, वह खाई कहलाती है और ऊपर चौड़ी तथा नीचे संकड़ी हो उसे परिखा कहते हैं। जिस तोप को एक वक्त चलाने पर एक सौ आदमी एक साथ मारे जाते हों उसे शतघ्नी कहते हैं। मूल में उन भवनों के लिए 'सण्हा''लण्हा' आदि सोलह विशेषण दिये हैं। जो वस्तु श्वत होती है, उसके लिये ये सोलह विशेषण दिये जाते हैं और अशाश्वत वस्तु के लिए "पासाईया" आदि चार विशेषण दिये जाते हैं। इन सोलह विशेषणों का सामान्य अर्थ भावार्थ में दे दिया गया है। विशेष शब्दार्थ इस प्रकार है - १. अच्छा- स्वच्छ-आकाश एवं स्फटिक के समान, ये बिलकुल सब तरफ से स्वच्छ अर्थात् निर्मल हैं। २. सण्हा - श्लक्ष्ण-सूक्ष्म स्कन्ध से बने हुए होने के कारण चिकने वस्त्र के समान हैं। ३. लण्हा - लक्ष्ण-इस्तिरी किये गये वस्त्र जिस प्रकार चिकने रहते हैं अथवा घोटे हुए वस्त्र जैसे चिकने होते हैं। ४. घट्टा - घृष्ट-पाषाण की पुतली जिस प्रकार खुरशाण से घिस कर एक सी और चिकनी कर दी जाती है, वैसे वे भवन हैं। ५. मट्ठा - मृष्ट-कोमल खुरशाण से घिसे हुए चिकने। ६. णीरया - नीरज-स्वाभाविक रज अर्थात् धूलि रहित। ७. णिम्मला - निर्मल-आगन्तुक मल रहित। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy