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प्रथम प्रज्ञापना पद - पृथ्वीकायिक जीव प्रज्ञापना
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आदि मणियों के ९ भेद और चौथी गाथा में शेष ९ भेद इस प्रकार कुल मिला कर खरबादर पृथ्वीकायिकों के ४० भेद कहे गये हैं। इसके अलावा भी पद्म रागादि जितने रत्न हैं वे सभी खरबादर पृथ्वीकायिक हैं। सामान्य रूप से बादर पृथ्वीकायिकों के संक्षेप में दो भेद कहे गये हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त। उसमें जो अपर्याप्त हैं वे असंप्राप्त-स्व योग्य सभी पर्याप्तियों को प्राप्त नहीं हुए हैं अथवा असंप्राप्त अर्थात् विशिष्ट वर्ण आदि को प्राप्त नहीं हुए हैं इसी कारण उनमें स्पष्टतया वर्ण आदि का विभाग संभव नहीं है। शरीर आदि पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जाने पर ही बादर जीवों में वर्ण आदि विभाग प्रकट होता है, अपूर्ण होने की स्थिति में नहीं। अपर्याप्त जीव उच्छवास पर्याप्ति को पूरी किये बिना ही मर जाते हैं।
- शंका - अपर्याप्त जीव आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति और इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद उच्छ्वास पर्याप्ति अपूर्ण रहते क्यों मर जाते हैं, शरीर और इन्द्रिय पर्याप्ति के अपूर्ण रहते क्यों नहीं मरते ?
समाधान - सभी प्राणी अगले भव का आयुष्य बांध कर ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं यानी बिना आयुष्य बांधे मरते नहीं हैं और आयुष्य बंध आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति और इन्द्रिय पर्याप्ति पूरी होने पर ही होता है अतः आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति और इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण हो और उच्छ्वास पर्याप्ति अपूर्ण हो तब अपर्याप्त जीव मरण को प्राप्त होते हैं। ___ जो पर्याप्त हैं अर्थात् जिन्होंने स्व योग्य सभी पर्याप्तियाँ पूर्ण कर ली हैं। उनके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के भेद से हजारों भेद होते हैं। जैसे-वर्ण के ५, गंध के २, रस के ५ और स्पर्श के ८ भेद होते हैं। फिर प्रत्येक वर्ण, गंध, रस, स्पर्श में अनेक प्रकार की तरतमता होती है जैसे भ्रमर, कोयल
और काजल में कालेपन की न्यूनाधिकता होती है अतः कृष्ण, कृष्णतर और कृष्णतम आदि काले वर्ण के अनेक भेद हो जाते हैं। इसी प्रकार नीलवर्ण आदि के विषय में भी समझना चाहिये। इसी प्रकार गंध में दूसरी गंध के, एक रस में दूसरे रस के और एक स्पर्श के साथ दूसरे स्पर्श के मिश्रण-संयोग से गंध, रस और स्पर्श के भी हजारों भेद हो जाते हैं।
- संखिज्जाइं जोणिप्पमुह सयसहस्साइं अर्थात् संख्यात लाख योनि प्रमुख-योनिद्वार हैं। पृथ्वीकाथिक जीवों की लाखों योनियाँ हैं। जैसे कि-एक वर्ण, गंध, रस, और स्पर्श में पृथ्वीकायिकों की संवृता योनि होती है। वह तीन प्रकार की है-सचित्त, अचित्त और मिश्र (सचित्ताचित्त)। इनके प्रत्येक के तीन-तीन भेद होते हैं-शीत, उष्ण और शीतोष्ण। इन शीत आदि प्रत्येक के भी तारतम्य के कारण अनेक भेद हो जाते हैं। इस प्रकार स्वस्थान के आश्रयी व्यक्ति भेद से विशिष्ट वर्णादि युक्त असंख्य योनियाँ होने पर भी जाति की अपेक्षा एक ही योनि गिनी जाती है। यानी प्राणियों के उत्पत्ति स्थान व्यक्तिगत भेद से असंख्यात हैं फिर भी जाति-अमुक वर्णादिक की समानता की अपेक्षा एक ही योनि गिनी गयी है। इसलिए सूक्ष्म और बादर पृथ्वीकायिकों की मिल कर संख्यात (सात) लाख योनियों कही गयी हैं।
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