________________
१७८
प्रज्ञापना सूत्र
*********
*******************
के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में और स्व स्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ शर्कराप्रभा पृथ्वी के बहुत से नैरयिक निवास करते हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो! वे काले, काली आभा वाले, गंभीर रोमाञ्च वाले, भीम (भयंकर), उत्कट त्रासजनक और अतीव काले वर्ण के कहे गये हैं। वे नित्य भयभीत, सदैव त्रस्त, नित्य (परमाधार्मिक देवों द्वारा और परस्पर) त्रास पहुँचाए हुए, सदैव उद्विग्न तथा नित्य अत्यंत अशुभ रूप और संबद्ध-निरंतर नरक भय का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए रहते हैं।
कहि णं भंते! वालुयप्पभा पुढवी णेरइयाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! वालुयप्पभा पुढवी णेरड्या परिवसंति? गोयमा! वालुयप्पभा. पुढवीए अट्ठावीसुत्तरजोयण सयसहस्स-बाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वजित्ता मझे छव्वीसुत्तरजोयण सयसहस्से एत्थ णं वालुयप्पभा पुढवी जेरइयाणं पण्णरस गरयावास सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। ते णं णरगा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा, अहे खुरप्पसंठाणसंठिया, णिच्चंधयार तमसा, ववगय गहचंद-सूर-णक्खत्तजोइसियप्पहा, मेद-वसा-पूयपडल-रुहिर-मंसचिक्खिल्ल-लित्ताणुलेवणतला, असुई वीसा परमदुब्भिगंधा, काउअगणिवण्णाभा, कक्खडफासा, दुरहियासा, असुभा णरगा, असुभा णरगेसु वेयणाओ। एत्थ णं वालुयप्पभा पुढवी णेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखिज्जइ भागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेजइ भागे, सहाणेणं लोयस्स असंखिजइ भागे। तत्थ णं बहवे वालुयप्पभा पुढवी जेरइया परिवसंति। काला, कालोभासा, गंभीरलोमहरिसा, भीमा, उत्तासणगा, परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता समणाउसो!। ते णं तत्थ णिच्चं भीया, णिच्चं तत्था, णिच्चं तसिया, णिच्चं उव्विग्गा, णिच्चं परममसुहसंबद्धं णरग भयं पच्चणुभवमाणा विहरंति॥९९॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक और अपर्याप्तक वालुकाप्रभा नामक तीसरी (नरक) पृथ्वी के नैरयिकों के स्थान कहां कहे गये हैं ? हे भगवन् ! वालुकाप्रभा पृथ्वी के नैरयिक कहां निवास करते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! वालुकाप्रभा पृथ्वी की मोटाई एक लाख अट्ठाईस हजार योजन है उसमें ऊपर के एक हजार योजन अवगाहन (अंदर प्रवेश) कर और नीचे एक हजार योजन छोड़ कर शेष एक लाख छब्बीस हजार योजन प्रमाण मध्य भाग में वालुकाप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों के पन्द्रह लाख
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org