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प्रज्ञापना सूत्र
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लेकर अधोलौकिक ग्रामों के पूर्व तक की पोलार तक तो पूर्व दिशा में भी समान हैं। अत: कल्पना से गौतम द्वीप को अधोलौकिक ग्रामों में डाल दिया जाय तो भी गौतम द्वीप का कुछ भाग बच जाता है इसलिये पश्चिम दिशा में पृथ्वीकाय के जीव पूर्व दिशा से तुल्य नहीं किन्तु विशेषाधिक हैं।
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यद्यपि टीकाकार ने पूर्व दिशा में खड्डे आदि बताये हैं किन्तु ये कितने ऊँडे हैं, इसका स्पष्टीकरण नहीं किया है। तो भी अनुमान से उनकी ऊंड़ाई अपेक्षा से समझी जा सकती है । अतः पूर्व महाविदेह की विजयें भी नौ सौ योजन की ऊँड़ी हो सकती हैं, किन्तु अधोलोक का स्पर्श नहीं करने से पूर्व दिशा में अधोलौकिक ग्राम नहीं बताये गये हैं ऐसी सम्भावना लगती है। इसी प्रकार धातकीखण्ड और अर्धपुष्कर द्वीप की विजयें भी क्रमशः नौ सो योजन की उंडी होने में कोई बाधा नहीं आती है।'
प्रश्न - अप्काय के वर्णन में "मानस सरोवर" का कथन किया गया है, अतः मानस सरोवर कहाँ पर आया हुआ है ?
उत्तर - आगमों के मूल पाठ में "मानस सरोवर" का वर्णन देखने में नहीं आता। टीकाकार ने उसका उल्लेख किया है यथा -
"उदीच्यां हि दिशि सङ्ख्येययोजनेषु द्वीपेषु मध्ये कस्मिंश्चित् द्वीपे आयामविष्कम्भाभ्यां सङ्घयेययोजन कोटी प्रमाणं मानसं सरः समस्ति "
अर्थ - यहाँ जम्बूद्वीप से आगे संख्यात योजन वाले द्वीप समुद्रों को उल्लंघन करने के बाद किसी एक संख्यातवें द्वीप में मानससरोवर नाम का सरोवर है । वह संख्यात करोड़ों योजन का लम्बा चौड़ा है। इसका शुद्ध नाम तो मानस सरोवर है परन्तु बोलचाल की भाषा में इसे मान सरोवर कह देते हैं।
पानी में ( अप्काय में) साता बोलों की जो नियमा कही जाती है उसकी अपेक्षा समझने की आवश्यकता है, क्योंकि कभी कभी पानी में त्रस जीव और निगोद के जीव नहीं भी होते हैं। जैसे कि तत्काल का वर्षा हुआ पानी तथा नदी नाले आदि के अशाश्वत पानी में और राजगृह नगर के वैभार पर्वत पर गरम पानी का द्रह है उसमें निगोद के जीव नहीं है, क्योंकि निगोद जीवों की योनि शीत योनि है । इस कारण से निगोद के जीव वहाँ पर उत्पन्न नहीं होते हैं । शाश्वत पानी के सभी स्थानों में सात बोलों की नियमा प्रायः समझी जाती है।
दिसावाणं सव्वत्थोवा बेइंदिया पच्छिमेणं, पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दक्खिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया ।
दिसावाणं सव्वत्थोवा तेइंदिया पच्चत्थिमेणं, पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया ।
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दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा चउरिदिया पच्चत्थिमेणं, पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया ॥ १३९॥
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