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________________ २०४ *********** Hal ***************************************************** प्रज्ञापना सूत्र ******************************************** असुरकुमाराणं देवाणं तीसं भवणावास सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। ते णं भवणा बाहिं वट्टा, अंतो चउरंसा, सेसं जहा दाहिणिल्लाणं जाव विहरंति। बली एत्थ वइरोयणिंदे वइरोयणराया परिवसइ, काले महाणील सरिसे जाव पभासेमाणे। से णं तत्थ तीसाए भवणावास सयसहस्साणं, सट्ठीए सामाणिय साहस्सीणं, तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं, चउण्हं लोगपालाणं, पंचण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, चउण्ह य सट्ठीणं आयरक्खदेव साहस्सीणं, अण्णेसिंच बहूणं उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं कुव्वमाणे विहरइ॥१०९॥ __कठिन शब्दार्थ - वइरोयणिंदे - 'विविधै रोचन्ते दीप्यन्ते इति विरोचनास्त एव वैरोचनाः। दाक्षिणात्यासुरकुमारेभ्यः सकाशाद् विशिष्टं रोचनं दीपनं येषामस्ति ते वैरोचनाः। ___ भावार्थ - वैरोचन का अर्थ है अग्नि। अग्नि की तरह जो दीप्त हो उन्हें वैरोचन कहते हैं अर्थात् दक्षिण दिशा के असुरकुमार देवों की अपेक्षा जो अधिक दीप्तिमान हों, उन्हें वैरोचन कहते हैं। तात्पर्य यह है कि उत्तर दिशा के देवों को वैरोचन कहते हैं। उन देवों का इन्द्र वैरोचनेन्द्र कहलाता है। उनके राजा को वैरोचनराजा कहते हैं। उत्तर दिशा के असुरकुमारों के अधिपति बली के ये दोनों (वैरोचनेन्द्र तथा वैरोचनराजा) विशेषण हैं। प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक उत्तरदिशा के असुरकुमारदेवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन् ! उत्तरदिशा के असुरकुमार देव कहाँ रहते हैं ? उत्तर - हे गौतम! जंबूद्वीप नामक द्वीप में मेरु पर्वत के उत्तर में एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर एक हजार योजन अवगाहन करके तथा नीचे एक हजार योजन छोड़ कर मध्य के एक लाख अठहत्तर हजार योजन भाग में उत्तरदिशा के असरकमार देवों के तीस लाख भवनावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे भवन बाहर से गोल और अंदर से चौरस हैं शेष सब वर्णन यावत् विचरण करते हैं तक दक्षिण दिशा वाले असुरकुमार देवों के समान जानना चाहिये। यहाँ वैरोचनेन्द्र वैरोचनराजा बली निवास करता है। वह काला है महानील के समान है इत्यादि सारा वर्णन यावत् प्रभासित करता हुआ रहता है। वह बलीन्द्र वहाँ तीस लाख भवनावासों का, साठ हजार सामानिक देवों का, तेतीस त्रायस्त्रिंशक देवों का, चार लोकपालों का, परिवार सहित पांच अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपतियों का, चार गुणा साठ हजार (दो लाख चालीस हजार) आत्म रक्षक देवों का तथा अन्य बहत से उत्तरदिशा के असरकमार देवों और देवियों का आधिपत्य और अग्रेसरत्व करता हुआ विचरण करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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