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________________ २२६ *********** प्रज्ञापना सूत्र **************************** ********* **************************** ज्योतिषी देवों के वर्णन में सर्व प्रथम 'बहु सम रमणीय भूमि भाग' शब्द आया है। उसका अर्थ यह है कि - मेरु पर्वत जमीन पर दस हजार योजन का जाड़ा (मोटा) है। उसके ठीक बीचों बीच में आठ रुचक प्रदेश हैं। उनको बहु सम रमणीय भूमि भाग कहा गया है। उस बहु सम रमणीय भूमिभाग से ७९० योजन पर तारा मण्डल है। वह तारा मण्डल ११० योजन में विस्तृत है। उसमें सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र आदि ज्योतिषी देवों का वर्णन है। विशेष विवरण जीवाजीवाभिगम सूत्र के "ज्योतिष्क" नामक उद्देशक से जानना चाहिये। इस लोक का आकार नाचते हुए भोपे के आकार का है जो जामा पहनकर कमर पर दोनों हाथ रख कर तथा दोनों पैरों को कछ फैलाकर नाचता है। इस लोक की लम्बाई चौदह रज (राज) परिमाण है। इसका मध्य भाग पहली नरक के आकाशान्तर में है। अत: यह स्पष्ट होता है कि ऊर्ध्वलोक की लम्बाई सात राजु से कुछ कम है और अधोलोक की लम्बाई सात राजु से कुछ अधिक है। इन दोनों के . बीच में ति लोक आया हुआ है। अर्थात् मेरु पर्वत के मध्यभाग में आये हुए आठ रुचक प्रदेशों से ऊपर नौ सौ योजन तथा नीचे नौ सौ योजन इस प्रकार अठारह सौ योजन की मोटाई वाला ति लोक है। समतल भूमिभाग पर मनुष्य तथा तिर्यंच पशुपक्षी आदि निवास करते हैं। ज्योतिषी देव भी ति लोक में ही आये हुए हैं। बहुसम रमणीय भूमिभाग से सात सौ नब्बे योजन ऊपर जाने पर तारामण्डल आता है। वहाँ से दस योजन ऊपर जाने पर सूर्य का मण्डल आता है जो कि समतल से (८००) आठ सौ योजन ऊँचा है। फिर अस्सी योजन ऊपर जाने पर चन्द्र मण्डल (चन्द्र विमान) आता है। आठ सौ चौरासी (८८४) योजन ऊपर जाने पर नक्षत्र मण्डल आता है फिर आठ सौ इठयासी (८८८) योजन पर बुध का विमान, आठ सौ इकराणु (८९१) योजन पर शुक्रग्रह का विमान, आठ सौ चोराणु (८९४) योजन पर बृहस्पति का विमान, आठ सौ सत्ताणु (८९७) योजन पर मंगल का विमान और नौ सौ योजन ऊपर जाने पर शनिश्चर का विमान आता है। इस प्रकार एक सौ दस योजन की मोटाई में सब ज्योतिषी देव रहते हैं। अढाई द्वीप के अन्दर वाले और बाहर वाले ज्योतिषी देवों के विमान का संस्थान आधे कविठ के आकार का है। अढ़ाई द्वीप के अन्दर वाले ज्योतिषी देवों के ताप (प्रकाश) क्षेत्र का आकार ऊर्ध्व मुंह किये हुए कदम्ब वृक्ष के पुष्प जैसा है और अढाई द्वीप के बाहर वाले ज्योतिषी देवों के ताप क्षेत्र का संस्थान पकी हुई ईंट के आकार का होता है। ज्योतिषी देवों के और अलोक के ग्यारह सौ ग्यारह (११११) योजन की दूरी है अर्थात् ज्योतिषी देवों से ग्यारह सो ग्यारह (११११) योजन दूरी पर अलोक है। सब ज्योतिषी देवों के विमान स्फटिक रत्नमय हैं। किन्तु लवण समुद्र के उदक शिखा के अन्दर वाले ज्योतिषी देवों के विमान दक स्फटिक रत्नमय है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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