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विवाह-क्षेत्र-प्रकाश
दृष्टिगोचर होगे, और इसलिये कहना होगा कि यह सब समयसमयकी ज़रूरतो, देश-देशकी आवश्यकताओ और जाति-जातिके पारस्परिक व्यवहारोका नतीजा है, अथवा इसे कालचक्रका प्रभाव कहना चाहिए। जो लोग कालचक्रकी गतिको न समझकर एक ही स्थानपर खडे रहते हैं और अपनी पोजीशन (Position) को नही बदलते-स्थितिको नही सुधारते-वे नि सन्देह कालचक्रके आघातसे पीडित होते और कुचले जाते हैं अथवा ससारसे उनकी सत्ता उठ जाती है। इस सब कथनसे अथवा इतने ही सकेतसे लोकाश्रित ( लौकिक ) धर्मोका बहुत कुछ रहस्य समझमें आ सकता है। साथ ही, यह मालूम हो जाता है कि वे कितने परिवर्तनशील हुआ करते हैं। ऐसी हालतमे विवाह जैसे लौकिक धर्मों और सासारिक व्यवहारोंके लिये किसी आगमका आश्रय लेना, अर्थात् यह ढूंढ-खोज लगाना कि आगममे किस प्रकारसे विवाह करना लिखा है, बिल्कुल व्यर्थ है । कहा भी है--
__ “ससार-व्यवहारे तु स्वतः सिद्ध वृथाऽऽगमः' ।"
अर्थात्--ससारका व्यवहार स्वत सिद्ध होनेसे उसके लिये आगमकी जरूरत नही। __वस्तुत आगम-ग्रन्थोमे इस प्रकारके लौकिक धर्मों और लोकाश्रित विधानोका कोई क्रम निर्धारित नही होता। वे सब लोकप्रवृत्तिपर अवलम्बित रहते हैं। हाँ, कुछ त्रिवर्णाचारो जैसे अनार्प ग्रन्थोमे विवाह-विधानोका वर्णन जरूर पाया जाता है। परन्तु वे आगम ग्रन्थ नही है उन्हे आप्त भगवान्के वचन नही कह सकते और न वे आप्तवचनानुसार लिखे गये है-इतनेपर
१. यह श्रीसोमदेव आचार्यका वचन है ।