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विवाह-क्षेत्र प्रकाश
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नही है ? ऐसा कहने पर आजकलके रीति-रिवाजोको एकदम उठाकर उनके स्थानमे वही वसुदेवजीके समयके रोति-रिवाज कायम कर देना ही समुचित न होगा, बल्कि साथ ही अपने उन सभी पूर्वजोको कलङ्कित और दोषी भी ठहराना होगा, जिनके कारण वे पुराने ( सर्वज्ञभाषित ) रीति-रिवाज उठकर उनके स्थानमे वर्तमान रीति-रिवाज कायम हुए और फिर हम तक पहुँचे । परन्तु ऐसा कहना और ठहराना दु साहस मात्र होगा। वह कभी इष्ट नही हो सकता और न युक्ति-युक्त ही प्रतीत होता है। इसलिये यही कहना समुचित होगा कि उस वक्तके वे रीति-रिवाज भी सर्वज्ञभाषित नही थे। वास्तवमे गृहस्थोका धर्म दो प्रकारका वर्णन किया गया है --एक लौकिक और दूसरा पारलौकिक । लौकिक धर्म लोकाश्रय और पारलौकिक आगमाश्रय होता है । विवाह-कर्म गृहस्थोके लिये एक लौकिक धर्म है और इसलिये वह लोकाश्रित है-लौकिक जनोकी देशकालानुसार जो प्रवृत्ति होती है उसके अधीन है-लौकिक जनकी प्रवृत्ति हमेशा एक रूपमे नही रहा करती। वह देशकालकी आवश्यकताओके अनुसार, कभी पञ्चायतियोके निर्णय द्वारा और कभी प्रगतिशील व्यक्तियोके उदाहरणोको लेकर, बराबर बदला करती है और इसलिये वह पूर्णरूपमे प्राय कुछ समयके लिये ही स्थिर रहा करती है। यही वजह है कि भिन्नभिन्न देशो, समयो और जातियोके विवाह-विधानोमे बहुत बडा अन्तर पाया जाता है।
एक समय था जब इसी भारतभूमिपर सगे भाई-बहिन भी १. द्वौ हि धौं गृहस्थाना लौकिक पारलौकिक. ।
लोकाश्रयो भवेदाद्य. पर. स्यादागमाश्रयः ॥ सोमदेव. ।