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प्राकथन]
हिन्दीभाषाटीकासहित
(४६)
में उपलब्ध होते हैं, और पूर्वोक्त युक्तियों के अतिरिक्त अन्य भी अनेकों युक्तियां पाई जाती हैं, जिन से यह भलीभाँति सिद्ध हो सकता है कि ईश्वर कर्म का फल नहीं देता, परन्तु विस्तारभय से अधिक कुछ नहीं लिखा जाता । अधिक के जिज्ञासुओं को जैनकर्मग्रन्थों का अध्ययन अपेक्षित है ।
कर्मवादप्रधान जैनदर्शन सुख दःख में मात्र कर्म को ही कारण नहीं मानता किन्तु साथ में पुरुषार्थ को भी वही स्थान देता है जो उस ने कर्म को दिया है । कर्म और पुरुषार्थ को समकक्षा में रखने वाले अनेक वाक्य उपलब्ध होते हैं। जैसेकि
यथा ह्य केन चक्रण, न रथस्त्य गतिर्भवेत् ।
__ एवं पुरुषकारेण विना, दैवं न सिध्यति ॥१॥ अर्थात्-कर्म और पुरुषार्थ जीवनरथ के दो चक्र हैं । रथ की गति और स्थिति दो चक्रों के औचित्य पर निर्भर है । दो में से एक के द्वारा अर्थ की सिद्धि या अभीष्ट की प्राप्ति नहीं हो सकती।
जैनदर्शन मात्र कर्मवादी या पुरुषार्थवादी ही है--यह कथन भी यथार्थ नहीं है । प्रत्युत जैनदर्शन कर्मवादी भी है और पुरुषार्थवादी भी । अर्थात् वह दोनों को सापेक्ष *स्वीकार करता है।
जैनदर्शन के कथनानुसार ये दोनों ही अपने २ स्थान में असाधारण हैं । यही कारण है कि जैनदर्शन को अनेकान्तदर्शन भी कहा जाता है । उस के मत में वस्तु मात्र ही अनेकान्त (भिन्न २ पर्याय वाली) है और इसी रूप में उस का आभास होता है ।
सामान्य रूप से कर्म दो भागों में विभक्त है । शुभकर्म तथा अशुभकर्म । शुभकर्म प्राणियों की अनुकूलता (सुख) में कारण होता है और अशुभकर्म जीवों की प्रतिकूलता (दुःख) में हेतु होता है। शास्त्रीय परिभाषा में ये दोनों पुण्यकर्म और पापकर्म के नाम से विख्यात है। पुण्य के फल को सुखविपाक और पाप के फल का दुःखविपाक कहा जाता है । सुखविपाक ओर दुःखविपाक के स्वरूप का प्रतिपादक शास्त्र विपाकश्रु त कहलाता है। *समन्तभद्राचार्यकृत देवागमस्तोत्र में कर्मपुरुषार्थ पर सुन्दर ऊहापोह किया गया है। जैसेकि
देवादेवार्थसिद्धिश्चेद् , दैवं पौरुषतः कथम् ? दैवतश्चेद् विनिर्मोक्षः, पौरुषं निष्फलं भवेत् ॥८॥ पौरुषार्थादेव सिद्धिश्चेत , पौरुषं दैवतः कथम् ?
पौरुषाच्चेदमोघं स्यात् , सर्वप्राणिषु पौरुषम् ॥८६॥ भावार्थ--यदि दैव-कर्म से ही प्रयोजन सम्पन्न होता है तो पुरुषार्थ के बिना देव की निष्पत्ति हुई कैसे ? और यदि केवल देव से ही जीव मुक्त हो जाएं तो संयमशील व्यक्ति का पुरुषार्थ निष्फल हो जावेगा । दूसरी बात यह है कि यदि पौरुष से ही कार्यसिद्धि अभिमत है तो दैव के बिना पौरुप कैसे हुआ ? और मात्र पौरुष से ही यदि सफलता है तो पुरुषार्थी प्राणियों का पुरुषार्थ निष्फल क्यों जाता है ?, आचार्यश्री ने इन पद्यों में कर्म और पुरुषार्थ दोनों को ही सम्मिलित रूप से कार्यसाधक बतलाते हुए बड़ी सुन्दरता से अनेकान्तवाद का समर्थन किया है ।
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