Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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स्वार्थो वार्तिके
विशुद्धिका अर्थ विपुलमतिमें प्राप्त हो रही प्रकृष्ट विशुद्धि की गयी है । तथा अप्रतिपात करके भी विपुलमतिज्ञान उस ऋजुमति से विशेषताग्रस्त है । क्योंकि उस विपुलमति मन:पर्यय ज्ञानके स्वामियोंका बढ रहा संयम पतनशील नहीं है । अतः उस वर्द्धमान संयमगुणके साथ एकार्थसमवाय संधवाला होने के कारण विपुलमतिका प्रतिपात नहीं होता है। अर्थात् - जिसी आत्मामें चारित्र गुणका परिणाम संयम वृद्धिंगत हो रहा है, उसी ऋद्धिप्राप्त आत्मामें चेतना गुणका मन:पर्यय परिणाम हो रहा है । अतः भाईयोंके सहोदरस्य संबंध के समान संयम और मन:पर्ययका परस्पर में एकार्थसमवाय संबंध है । इस संबंध से मन:पर्ययज्ञान संयममें रह जाता है । और संयमगुण इस मन:पर्ययज्ञान में वर्तजाता है। ये सब बातें विलपतिमें ऋजुमतिकी अपेक्षासे विशेषताओंको धरनेके लिये उपयोगी हो रही है । किन्तु मिति ऋजुमति मन:पर्यय ज्ञान तो उन विशुद्धि और अप्रतिपात करके भला कैसे विशेषताओंसे परिपूर्ण हो सकता है ? क्योंकि ऋजुमति तो अधिक विशुद्धि और अप्रतिपात नहीं पाये जाते हैं । अब प्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार प्रविष्ट होकर शंका करनेपर तो सिद्धान्त उत्तर ( वरदान यह है कि अपनी अल्प विशुद्धि और प्रतिपात करके ऋजुमति ज्ञान विपुलमति से विशेषताग्रस्त है । इस प्रका प्रकार अपने चित्तमें अवधारण कर लो । उक्त शंकाका जगत् में इसके अतिरिक्त अन्य कोई उत्तर नहीं है। मीठेपन करके आम्रफल करेलासे विशिष्ट है । ऐसा प्रयोग करनेपर आपाततः दूसरा वाक्य उपस्थित हो जाता है कि करेला कडुत्रेपन करके आम्रफलसे विशिष्ट है । अपादानतावच्छेदक धर्म और प्रतियोगितावच्छेदक धर्म न्यारे न्यारे मानना अनिवार्य हैं । विपुलमतिकी अपेक्षासे ऋजुमतिज्ञान अल्प विशुद्धिवाला है । क्योंकि उस ऋजुमतिके अधिकारी स्वामी भले ही उसे आरम्भकर उपशान्त कषायवाले ग्यारहवें गुणस्थानतक में यथायोग्य ठहरनेवाले हैं । तो भी वहां सम्भव रहे प्रतिपतनशील संयमगुणके साथ एकार्थसमवाय सम्बन्धको धारनेवाले ऋजुमतिका प्रतिपात होना सम्भव रहा है । इस कारण ऋजुमति भी अपनी अल्पविशुद्धि और प्रतिपात करके विमति विशेषताओंको धारकर उच्चग्रीव होकर खडा हुआ है । बडोंसे छोटे पुरुष भी विशिष्ट हो जाते हैं । स्निग्न पेडोंसे रूक्षचणक विलक्षण है । यह सिद्धान्त हमने अन्य विद्यानन्द महोदय आदि ग्रन्थोंमें विस्तार के साथ साथ दिया है । विशेष व्युत्पत्ति चाहनेवालों को वहांसे देखकर सन्तोष कर लेना चाहिये ।
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इस सूत्र का सारांश |
इस सूत्र के भाष्य में प्रकरण यों हैं कि ऋजुमति और विपुलमति शङ्खोंकी निरुक्तिसे जितने विशेष प्रकट हो सकते हैं, उनसे अतिरिक्त भी विशेषोंकी प्रतिपत्ति करानेके लिये सूत्रका आरम्भ करना आवश्यक बताकर विशुद्धि और अप्रतिपातका लक्षण किया है। तत् शद्वसे मन:पर्ययके