Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
तयोरेवर्जुविपुलपत्योर्विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां विशेषोऽवसेय इत्यर्थः।
ऋजुमति और विपुलमति नामक उन मनःपर्ययके भेदोंका ही विशुद्धि और अप्रतिपात करके विशेष किया जाना निर्णीत कर लेना चाहिये । " तयोरेव विशेषः " इस प्रकार अवधारण लगाकर अर्थ किया गया समझो।
ननूत्तरत्र तद्भेदस्थिताभ्यां स विशिष्यते । विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां पूर्वस्तु न कथंचन ॥४॥ इत्ययुक्तं विशेषस्य द्विष्ठत्वेन प्रसिद्धितः । विशिष्यते यतो यस्य विशेषः सोऽत्र हीक्षते ॥५॥
सूत्रके प्रसिद्ध हो रहे अर्थपर किसीकी शंका है कि पूर्वसूत्रमें “ ऋविपुलमती " शब्द द्वारा कहा गया वह विपुलमति ही उत्तर सूत्रमें उनके भेद करनेमें स्थित हो रहे विशुद्धि और अप्रतिपातकरके विशेषित किया जा सकता है । किंतु पहिला ऋजुमति तो किसी भी प्रकारसे विशुद्धि और अप्रतिपात करके विशेषित नहीं किया जा सकता है। जैसे कि सत्स्वरूप करके घटसे पटको भिन्न माना जायगा तो एक पटको ही असत्पना प्राप्त होता है । धट तो अक्षुण्ण सत बना रहता है । इसी प्रकार विशुद्धि और अप्रतिपात ये सूत्र पाठकी अपेक्षा और वैसे भी स्वभावसे विपुलमतिके तदात्मक धर्म हैं । ऋजुमतिके नहीं । अतः विपुलमति तो विशेष युक्त हो जायगा । किन्तु ऋजुमति विशेषताओंसे रहित पडा रहेगा । अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार शंका करना अयुक्त है । क्योंकि संयोग विभाग द्वित्व त्रित्व संख्याक समान विशेष पदार्थ भी दो आदि अधिकरणोंमें स्थित हो रहेपन करके प्रसिद्ध हो रहा है। आम और अमरूदकी विशेषता दोमें रहती है। विभाग किया जाय, जिससे अथवा जिसका विभाग किया आय, इस निरुक्तिकरके विभाग विचारा ग्राम और देवदत्त दोनोंमें रह जाता है। इसी प्रकार जिससे जो विशेषित किया जाय वह अथवा जिस पदार्थका विशेष होय यह विशेष है, यह ढंग यहां अच्छा दीख रहा है । अतः विपुलमति
और ऋजुमति दोनों परस्परमें विशुद्धि, अप्रतिपात द्वारा विशेषसे आक्रान्त हो जायेंगे । भले ही एक ऋजुमतिमें वे धर्म नहीं पाये जावें, तभी तो विशेषताको पुष्टि भी होगी । यदि वे धर्म दोनोंमें पाये जाते तो फिर विशेषता क्या होती ! कुछ भी नहीं । वैशेषिक मतानुसार द्वित्व या त्रित्वसंख्या एक होकर भी पर्याप्त संबंधसे दो तीन द्रव्योंमें ठहर जाती है। किन्तु संयोग, द्वित्व, त्रिव आदि गुण विचारे न्यारे न्यारे होकर सत्य न्यायसम्बन्धसे भिन्न भिन्न द्रव्योंमें ठहरते हैं । शाखापर वन्दरका संयोग हो जानेपर अनुयोगितासम्बन्धसे संयोग शाखामें रहता है । और प्रतियोगितासम्बन्धसे संयोग कपिमें ठहरता है।