Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वाखोकवार्तिके
बुद्धियोंको अधिकार प्राप्त नहीं है। इसका विशेष वर्णन अन्य ग्रंथों में किया है। इस प्रकार मनःपर्ययके स्वरूप, भेद, बहिरंगकारणोंका निर्णय कर उसका प्रदान कर लेना चाहिये ।
द्रव्यक्षेत्रमुकालभावनियतो बाचं निमित्तं मनोपेक्षामात्रमितस्तदाश्रितसतस्ताच्छब्द्यनीत्या विदन । निर्वृत्तपगुणर्जुबुद्धिकुटिलानिवृत्तवैपुल्यभृब्दुदीदर्शनऋद्धिसंयमवतो जीयान्मनापर्ययः ॥१॥
अग्रिम सूत्रका अवतरण यो समलिया जाय कि इन ऋजुमति और विपुलमति मनःपर्यय शानोंमें परस्पर कोई विशेषता नहीं है ! इस प्रकार शिष्यकी जिज्ञासा होनेपर श्री उमास्वामी महारा. जके अमृतमय मुखकुम्भसे रसायनसमान सूत्रबिन्दुका संतप्त हृदय भव्यजीवोंके संसाररोग निवारणार्य निष्कासन होता है।
विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥ २४ ॥
आत्माके साथ पहिलेसे बंधे हुये मनःपर्ययज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर जो आत्माकी प्रसन्नता होती है, वह विशुद्धि है तथा मोहनीयकर्मका उद्रेक नहीं होनेके कारण संयमशिखरसे प्रतिपात नहीं हो जाना अप्रतिपात है । विशुद्धि और अप्रतिपात इन दो धर्मो करके उन ऋजुमति
और विपुलमति मनःपर्यय ज्ञानोंका विशेष है । ज्ञानावरणकर्मको उत्तर उत्तर प्रकृतियां असंख्यात हैं। अतः अन्तरंगकारणके अधीन हो रही ऋजुमतिकी विशुद्धतासे विपुलमतिकी विशुद्धि बढी हुयी है । विजुलमति गुणश्रेणियोंमें उत्तरोत्तर चढता ही चला जाता है। किन्तु ऋजुमतिका गुणश्रेणीसे अधोगुणस्थानमें पतन हो जाता है, उपशमश्रेणीसे गिरना अनिवार्य है।
ननु ऋजुविपुलमत्योः स्ववचनसामर्थ्यादेव विशेषप्रतिपत्तेस्तदर्थमिदं किमारभ्यत इत्याशंकायामाह ।
किसीकी शंका है कि ऋजुमति और विपुलमति ज्ञानोंके अपने अपने न्यारे न्यारे अर्थोके अभिधायक वचनोंकी सामर्थ्यसे ही दोनोंके विशेषोंकी प्रतिपत्ति हो चुकी थी। निरुक्ति द्वारा लभ्य अर्थ ही जब अन्तर डाल रहा है तो फिर उस विशेषकी ज्ञप्ति कराने के लिये यह सूत्र क्यों बनाया जा रहा है ! पुनरुक्तदोषके साथ व्यर्थपना भी प्रसंग प्राप्त होता है । इस प्रकार आशंका होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी उत्तर कहते हैं।
मनःपर्यययोरुक्तभेदयोः स्ववचोवलात् । विशेषहेतुसंविचौ विशुद्धीत्यादिसूत्रितम् ॥१॥