Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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हो रहे पदार्थको मन कहकर उस मनका जिस ज्ञानसे विशदरूप करके प्रत्यक्ष कर लेना जब मनःपर्यय कहा जा रहा है, तब वह मन बाह्यकारण जान लिया जाता है । अथवा जिस ज्ञान करके वह मन ( मनः स्थित अर्थ ) चारो ओरसे जान लिया गया है, वह मनःपर्ययज्ञान समझने योग्य है । इस प्रकार कथन करनेसे उस बहिरंगकारण मनके स्वरूपकी समीचीन वित्ति हो जाती है । अतः मनःपर्यय शब्दकी षष्ठी तत्पुरुष अथवा बहुव्रीहि वृत्ति द्वारा निरुक्ति करनेपर मनको बहिरंगकारणपना जान लिया जाता है । सभी शब्दोंकी निरुक्तिसे ही उनके वाच्यार्थीका बहिरंग कारण बात नहीं हो जाता है । फिर भी काययोग, वालतप, औपशमिक, आदि शब्दोंकी निरुक्तिसे अन्तरंग, बहिरंग, कारण कुछ कुछ धनित हो जाते हैं । सूत्रकार द्वारा कहे शब्दोंकी अकलंकवृत्तियां तो अनेक अर्थोको वहींसे निकाल लेती हैं।
इस सूत्रका सारांश । इस सूत्रके प्रकरण यों हैं कि प्रथम ही क्रमप्राप्त मनःपर्ययके भेद और बहिरंगकारणोंका निरूपण करनेके लिये सूत्रका परिभाषण आवश्यक बताकर ऋजुमति, विपुलमति शब्दोंका विग्रह किया है । तथा अन्वयार्थको बताकर निर्वर्तित अनिवर्तित अथवा ऋजु, बक्र, अर्थकर ऋजुमति, विपुलमति शब्दद्वारा ही मनःपर्ययके भेदोंका लक्षण कर दिया गया है । मिन पचन होते हुये भी सामानाधिकरण्य बन सकता है । सामान्यका विशेषोंके साथ तादात्म्य सम्बन्ध है । अन्यपदार्थप्रधान बहुव्रीहि और स्वपदार्थप्रधान तत्पुरुष समास यहां ये दोनों वृत्तियां इष्ट हैं । मनःपर्ययका प्रधानकारण क्षयोपशमविशिष्ट आत्मा है, दूसरेका या अपना मन तो अवलंब मात्र है । बहिरंगनिमित्त भले ही कहलो, नैयायिकोंके समान हम जैन यादद् ज्ञानोंमें आत्ममनःसंयोगको असमवर्ण्यकारण नहीं मानते हैं। मनःपर्ययज्ञानके मतिज्ञानपन और अनुमानपनके प्रसंगका निवारणकर मुख्य प्रत्यक्षपना घटित कर दिया है। उसमें ठहरनेवाला पदार्थ भी उपचारसे वह कह दिया जाता है । तदनुसार मनमें स्थित हो रहे अर्थको विषय करनेवाला ज्ञान मनःपर्यय भले प्रकार साध दिया गया है । ऋजुमति मनःपर्यय सात आठ योजन दूरतकके पदार्थोका विशद प्रत्यक्ष कर लेता है और विपुलमति तो चतुरस्त्र मनुष्यलोकमें स्थित हो रहे पदार्थोको प्रत्यक्ष जान लेता है । कोई जीव यदि मनमें नंदीश्वर द्वीप या पांचवें स्वर्गके पदार्थोका चिन्तवन कर ले तो उनको मन:पर्ययज्ञानी प्रत्यक्ष नहीं कर सकता है । द्रव्यकी अपेक्षा मनःपर्ययज्ञानी कार्मण द्रव्यके अनन्तमें भाग को जानता है । सर्वावधिके द्वारा कार्माणद्रव्यका अनन्तयां भाग जाना गया था उसका भी अनन्तवा भाग विपुलमति करके जाना जाता है । यह पिण्डस्कन्ध है। किन्तु गोम्मटसारकारने सर्वावधिका द्रव्य अपेक्षा विषय एक परमाणु मान लिया है । इस सूक्ष्म चर्चाका निर्णय करनेमें अस्मादृश मन्द