Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
पाठापेक्षयोत्तरो मनःपर्ययस्य भेदो विपुलमतिस्तदताभ्यां विशुद्धयातिपाताभ्यां स एव पूर्वस्मात्त दाहजुमतेविशिष्यते न पुनः पूर्वउत्तरस्मास्कयमपीत्ययुक्तं विशेषस्यो. भस्थत्वेन प्रसिद्धः। यतो विशिष्यते स विशेषो यश्च विशिष्यते स विशेष इति व्युत्पत्तेः। विशुद्धयातिपाताभ्यां चोत्तरतद्भेदगताभ्यां पूर्वो यथोत्तरस्माद्विशिष्यते तथा पूर्ववद्भेदगाभ्यामुत्तर इति सर्व निरवचं।
सूत्रके पाठकी अपेक्षासे उत्तरमें वर्त रहा मनःपर्ययका भेद विपुलमति है । उस विपुलमतिमें प्राप्त हो रहे विशुद्धि और अप्रतिपातकरके वह विपुलमति ही पूर्ववर्ती उस मन:पर्ययके भेद ऋजुमतिसे विशेषताको प्राप्त हो सकेगा। किन्तु फिर पूर्ववर्ती ऋजुमति तो उत्तरवर्ती विपुलमतिसे कैसे भी विशेषताको प्राप्त नहीं हो सकता है। इस प्रकार किसीका कहना युक्तियोंसे रीता है। कारण कि विशेषकी दोनोंमें ठहरनेवालेपन करके प्रसिद्धि हो रही है। जिससे विशेषताको प्राप्त होता है, यह पंचमी विभक्तिवाला भी विशेष है, और जो पदार्थ विशिष्ट हो रहा है, वह प्रथमा विभक्तिवाला पद भी विशेष है । इस प्रकार विशेष पदको व्युत्पत्ति करनेसे प्रतियोगी, अनु. योगी दोनोंमें रहनेवाले दोनों विशेष पकडे जाते हैं । जिसकी ओरसे विशेषता आती हैं, वह और जिस पदार्यमें विशेषता आकर बैठ जाती है, वे दोनों पदार्थ परस्परमें किसी विवक्षित धर्मद्वारा विशेषसे घिरे हुये माने जाते हैं। उस मनःपर्ययके उत्तरवर्ती मेदस्वरूप विपुलमतिमें प्राप्त हो रहे विशुद्धि और अप्रतिपात करके जिस प्रकार पूर्ववर्ती ऋजुमति विशेषित कर दिया जाता है, उसी प्रकार उस मनःपर्ययके पूर्ववर्ती भेद ऋजुमतिमें प्राप्त हो रहे, प्रतियोगितावच्छिन विशुद्धि और अप्रतिपातके उन अल्पविशुद्धि और प्रतिपात करके उत्तरवर्ती विपुलमति भी विशेषित हो जाता है। इस प्रकार सभी सिद्धान्त निर्दोष होकर सध जाता है । चेतनपनेकरके जीव जडसे भिन्न है । यहां जड और जीव दोनोंमें भेद ठहर जाता है। क्योंकि अचेतनपने करके जड भी जीवसे भिन्न है। यह अर्थात्-मापन्न हो जाता है।
ननु चर्जुपतेविपुलमतिर्विशुद्धया विशिष्यते तस्य ततो विशुद्धतरत्वान्मनःपर्यय. ज्ञानावरणक्षयोपशमप्रकर्षादुत्पन्नत्वात् । अप्रतिपातेन च तत्स्वामिनामपतिपतितसंयमत्वेन सत्संयमगुणैकार्थसमवायित्वेन विपुलमतेरपतिपाताद्विपुलमतेस्तु कथमृजुमतिर्विशिष्यते ? वाभ्यामिति चेत्स्वविशुध्याल्ल्या प्रतिपातेन चेति गम्यताम् । विपुलपत्यपेक्षयर्जुमतेरल्प विशुदित्वात्तत्स्वामिनामुपशान्तकषायाणामपि सम्भवत्मतिपतसंयमगुणैकार्थसमवायिनः प्रतिपातसम्भवादिति प्रपंचितमस्माभिरन्यत्र ।
उक्त सिद्धान्तोंमें किसीकी शंका है कि ऋजुमतिसे विपुलमति तो विशुद्धिद्वारा विशेषित किया जा सकता है। क्योंकि उस विपुलमतिको उस ऋजुमतिसे अधिक विशुद्धपना है। कारण कि मनापर्यय बानावरणका प्रकर्ष क्षयोपशम हो जानेसे विपुलमति उत्पन्न होता है। सूत्रमें पडी हुयी