Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तरवार्थचिन्तामणिः
मनः+परि+इण+घञ्+सु मनः ( मनःस्थित ) का अनुसंधानकर जो प्रत्यक्ष जानता है, वह मन:पर्यय है । इस प्रकार व्युत्पत्ति करनेपर जिसका बहिरंग निमित्तकारण मन है, ऐसा यह मन:पर्ययज्ञान है । इस ढंगसे इस मन:पर्यय ज्ञानके बहिरंग निमित्तकी प्रतिपत्ति कर की गयी है । न मतिज्ञानतापत्तिस्तस्यैवं मनसः स्वयं । निर्वर्त्तकत्ववैधुर्यादपेक्षामात्रतास्थितेः ॥ १०
इस प्रकार मनस्वरूपनिमित्तसे उत्पन्न होनेके कारण उस मन:पर्यय ज्ञानको मतिज्ञानपनेका प्रसंग हो जायगा, यह आपत्ति देना ठीक नहीं है । क्योंकि मानस मतिज्ञानको मन स्वयं बनाता है । किन्तु मन:पर्ययज्ञानका सम्पादन करनापना मनको प्राप्त नहीं है । केवल मनकी अपेक्षा है । अपेक्षामात्र से स्थित हो रहे मनको मानसमतिज्ञानके समान मनःपर्ययका सम्पादकपना नहीं है । शुक्लपचकी प्रतिपदा या द्वितीयाका पतला चन्द्रमा जब स्थूल दृष्टिवालेको नहीं दीखता है तो चतुर पुरुषकरके शाखा या दो बादलों के बीच में से वह चन्द्रमा दिखा दिया जाता है। यहां शाखा या बादल अपेक्षणीय मात्र हैं । प्रेरककारण नहीं हैं । इसी प्रकार स्वकीय या परकीय मनका अवलंब 1 लेकर प्रत्यक्ष ज्ञान कर किया जाता है । जैसे कि किसी फूल फल आदिका तुच्छ सहारा लेकर फलित ज्योतिषवाले विद्वान् भूत, भविष्यकी अनेक बातोंको आगमद्वारा बता देते हैं । अतः जिस ज्ञानमें मन प्रेरक होकर अंतरंग कारण है, वह मानसमतिज्ञान है । मनकी केवल अपेक्षा हो जानेसे मन:पर्यय में मन कारण नहीं हो सकता है । बाह्यकारण भले ही मानलो । अध्ययनमें पुस्तक - कारण है । चौकी कारण नहीं है, भले ही पुस्तक रखनेके लिए चौकीकी अपेक्षा होय तो इससे क्या होता है ।
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क्षयोपशममा बिभ्रदात्मा मुख्यं हि कारणं । तत्प्रत्यक्षस्य निर्वृत्तौ परहेतुपराङ्मुखः ॥ ११ ॥
उस मन:पर्यय प्रत्यक्षज्ञानकी उत्पत्ति करने में मुख्य कारण तो मन:पर्ययज्ञानावरण के क्षयोपशमको सब ओरसे धार रहा आत्मा ही है । जो कि आत्मा अन्य इन्द्रिय, मन, ज्ञापक लिंग, व्याप्ति, संकेतस्मरण आदि दूसरे कारणोंसे पराङ्मुख हो रहा है । अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञानकी उत्पत्ति में प्रतिबंधकोंसे रहित होता हुआ, केवल आत्मा ही कारण माना गया अनुभूत है । " अक्षं अक्षं प्रति " इति प्रत्यक्षं, केवल आत्माको कारण मानकर जो ज्ञान उपजता है, वह प्रत्यक्ष है ।
मनो लिङ्गजतापत्तेर्न च तस्यानुमानता । प्रत्यक्षलक्षणस्यैव निर्वाधस्य व्यवस्थितेः ॥ १२ ॥