Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
तिस प्रकार उक्त कथन अनुसार समास वृत्ति करते संते भी स्वपदार्थप्रधाना कर्मधारयवृत्ति अवरुद्ध हो जावेगी । और तैसा होनेपर विशिष्ट हो रहे दो मन:पर्ययस्वरूप ऋजुमति और त्रिपुलमतिनामक मतिज्ञान तो एक मन:पर्यय इस विधेयदल के साथ अन्वित इष्ट कर लिये हैं ।
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यथर्जुविपुलमती मन:पर्ययविशेषौ मन:पर्ययसामान्येनेति सामानाधिकरण्यमविरुद्धं सामान्यविशेषयोः कथंचित्तादात्म्यात्तथा संप्रतीतेश्च तद्वदृजुविपुलमती ज्ञानविशेषौ मन:पर्यययोज्ञानमित्यपि न विरुध्यते मनःपर्ययज्ञानभेदाप्रतिपत्तेः प्रकृतयोः सद्भावाविशेषात् ।
जिस प्रकार ऋजुमति और विपुलमति ये मन:पर्ययज्ञानके दो विशेष उस प्रकरणप्राप्त मन:पर्यय सामान्य के साथ इस प्रकार समान अधिकरणपनेको प्राप्त हो रहे बिरुद्ध नहीं हैं। क्योंकि एक सामान्य और कतिपय विशेषोंको कथंचित् तदात्मकपना हो जानेसे तिस प्रकार दो एक में या तीन एकमें अथवा एक तीनमें, एक दो आदिमें सामानाधिकरण्य भले प्रकार निर्णीत हो रहा है । उसीके समान ऋजुमति और विपुलमति ये जो दो ज्ञानविशेष हैं, वे एक मन:पर्ययज्ञान है । इस प्रकार भी कथन करनेपर कोई विरोध प्राप्त नहीं होता है। क्योंकि मन:पर्ययज्ञान सामान्य करके भेदकी प्रतिपत्ति नहीं होनेका सद्भाव इन प्रकरणप्राप्त ऋजुमति, मिति दोनों में विद्यमान है । कोई अन्तर नहीं है । मनुष्यत्वको अपेक्षा से ब्राह्मण, शूद्र, श्रायमें 1 कोई अन्तर नहीं है । शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष में चन्द्रिका बरोबर है। आगे पीछे मात्र होने से जब शुक्ल, काला पक्ष कह देते हैं ।
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कथं बाह्यकारणप्रतिपत्तिरत्रेत्याह ।
यहां कितने ही सूत्रोंमें ज्ञानके बाह्यकारणोंका विचार चला आ रहा है। तदनुसार आपने मन:पर्ययज्ञानके बहिरंगकारणोंकी इस सूत्रद्वारा प्रसिद्ध होना कहा था, सो आप बतलाइये कि यहां बहिरंगकारणोंकी प्रतिपत्ति किप्त प्रकार हुयी ? इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर विद्यानंदस्वामी उत्तर कहते हैं ।
परतोऽयमपेक्षस्यात्मनः स्वस्य परस्य वा । मनःपर्यय इत्यस्मिन्पक्षे बाह्यनिमित्तवित् ॥ ९ ॥
अपने अथवा दूसरे के मनकी अपेक्षा रखता हुआ यह मनःपर्षय ज्ञान अन्य बहिरंगकारण मनसे उत्पन्न होता है । इस प्रकार इस व्युत्पत्तिके पक्ष में ( होनेपर ) बहिरंग निमित्तकारणकी ज्ञप्ति हो जाती है ।
मनःपरीत्यानुसंधाय वायनं मन:पर्यय इति व्युत्पत्तौ बहिरंगनिमित्तकोऽयं मनःपर्यय इति बाह्यनिमित्तप्रतिपत्तिरस्य कृता भवति ।