Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तार्थचिन्तामणिः
जब वे दो विशेष अन्य पदार्थ उस सामान्य एक मन:पर्ययकी शक्तिसे ही जान लिये गये मानलोगे तब तो तिस कारण यह मन:पर्यय शब्द तिस प्रकार एकवचन भी सामान्यरूपसे प्रयुक्त करना युक्त है । अतः बहुव्रीहि समास करनेपर भी एकवचन इस ढंग से रक्षित रह सकता है, कोई क्षति नहीं है ।
सामानाधिकरण्यं च न सामान्यविशेषयोः । प्रबाध्यते तदात्मत्वात्कथंचित्संप्रतीतितः ॥ ७॥
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यहां कोई यदि यों शंका करे कि " ऋजुविपुलमती " तो द्विवचन पद है और " मन:पर्ययः " शद्व एकवचन है । अतः इनका समान अधिकरणपना नहीं बनेगा । किन्तु उद्देश्य विधेयदल में समान विभक्तिवाले, समान लिंगवाले, समान वचनवाले, शब्दोंका ही सामानाधिकरण्य वन सकता है । अत्र आचार्य कहते हैं कि यह शंका नहीं करनी चाहिये । क्योंकि सामान्य और विशेषमें हो रहा समानाधिकरणपना किसी भी प्रमाणसे बाधित नहीं होता है। क्योंकि सामान्य और विशेषोंका कथंचित् तदात्मकपना होने के कारण समान अधिकरणपना मले प्रकार प्रतीत हो रहा है । "मतिश्रुतावधिमन:पर्यय केवलानि ज्ञानम्" अथवा "साधोः कार्यं तपः श्रुते" " आये परोक्षम् " 66 यूयम् प्रमाणम् " आदि प्रयोगों में बाधारहित होकर समानाधिकरणपना है। सामान्य प्रायः एक वचन और विशेष प्रायः द्विवचन बहुवचन हुआ करते हैं ।
येsयाहुः । ऋजुश्व विपुला च ऋजुविपुले ते च ते मतीति च स्वपदार्थ वृत्तिस्तेन ऋजुविपुलमती विशिष्टे परिच्छिन्ने मन:पर्यय उक्तो भवतीति तद्भेदकथनं प्रतीयत इति तेषामप्यविरोधमुपदर्शयति ।
जो भी कोई विद्वान् यो समास वृत्ति कर कह रहे हैं कि ऋजु और विपुला इस प्रकार इतर इतर योग करनेपर ऋजुविपुले बनता है । और वे ऋजुविपुलावरूप जो मति हैं, इस प्रकार अपने ही पदके अर्थोको प्रवान रखनेवाली द्वन्द्वगर्भित कर्मधारय वृत्ति की गयी है । और तिस1 प्रकार करनेसे विशिष्ट हो रहे ऋजुपति और विधुलमतिज्ञान जाने जा रहे संते मनःपर्यय कथन कर दिये गये हो जाते हैं । यो उद्देश्यदलमें उस द्विवचन द्वारा मेदकथन करना प्रतीत हो रहा है । इस प्रकार कह रहे उन विद्वानोंके यहां भी जैनसिद्धान्त अनुसार कोई विरोध नहीं आता है । इस
स्वयं प्रत्यकार श्री विद्यानन्द स्वामी कुछ दिखला रहे हैं ।
स्वपदार्था च वृत्तिः स्यादविरुद्धा तथा सति । विशिष्टे हि मतिज्ञाने मनःपर्यय इष्यते ॥ ८ ॥