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( २० ) परन्तु वे इस बात के दृढ़ श्रद्धानी थे कि जो आत्मा जिन होते हैं, वे ही सर्वज्ञ होते हैं । और सर्वज्ञ के लिये मृषा प्रतिपादन का कोई कारण नहीं रहता है। इसलिये उन्होंने पुत्र की बात का प्रतिवाद करते हुए कहा-"अरे ! जिसे वैज्ञानिकों ने भेदन किया है, वह परमाणु हो ही नहीं सकता है । एक परमाणु की क्या बात है, द्विप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और सूक्ष्म परिणत अनन्त प्रदेशी स्कन्धों को भी वैज्ञानिक पकड़ सके--यह संभव नहीं है। तो फिर उसके भेदन की बात ही कहाँ रही ? जिनदेव कभी मृषा कथन नहीं कर सकते हैं।" __ मदन तिरस्कार से युक्त हँसता हुआ बोला--"आपका अंधविश्वास आप जानें। वैज्ञानिक तो प्रत्यक्ष प्रयोग किये बिना किसी बात को प्रचारित नहीं करते हैं। कहाँ थी भगवान् के समय में प्रयोगशालाएँ ? सिवाय कल्पना की उड़ानों के उनके पास क्या था ?" __नयनसुखजी हक्के-बक्के से पुत्र की ओर देखते ही रह गये । उनकी आशा उसी समय भग्न हो गयी । एक दिन किसी प्रसंग पर मदन ने कहा"आज के तीर्थंकर तो महात्मा गांधी हैं और गणधर है-विनोबाभावे।"
पिता ने अपने मेधावी पुत्र का मुंह ताकते हुए कहा-"क्या कहा ? तीर्थंकर हैं महात्मा गाँधी और विनोबाभावे गणधर हैं ? इससे हम मना नहीं कर सकते कि इस युग के वे विशिष्ट महापुरुष हैं । किन्तु वे तीर्थकर हैं ? गणधर हैं ?--यह बात कदापि सत्य नहीं है । इस पंचम आरे में न तीर्थंकर का जन्म हो सकता है और न गणधर का ।"
"अच्छे उल्लू बना गये हैं आपको-वे शास्त्रकार । बस उन्होंने ज्ञान-चरित्र के विकास का एकाधिपत्य अमक आत्मा को ही सौंप दिया है। यह सब मताभिनिवेश हैं'-मदन अट्टहास करता हुआ गरजता हुआ-सा बोल रहा था-"बस, इसीसे तो आप दिन जैसी उजेली बात को नहीं देख सकते हो । नवयुग का प्रकाश आप जैसों की आँखों के लिये नहीं है।"
नयनसुखजी ठगे हुए से मदन की ओर देख रहे थे । वे सोच रहे थे कि क्या यह वही मदन है जो बचपन में सामायिक करने के लिये मचला