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इसप्रकार इहलौकिक और पारलौकिक हीनता करते हुए मान के विषय में सुनो, जानो, चिन्तन करो और देखो । तथा वह (सुख नहीं) सीमा से रहित दुःख (उत्पन्न) करता है ( यह भी देखो ) ।
टिप्पण-१. सुनना और जानना दो प्रकार से होता है-स्वतः और परतः। अपने कानो को सुनाई दे ऐसे पढ़ना-स्वतः श्रवण है और गुरुदेव आदि के मुख से परतःश्रवण है। वैसे स्वयं श्रुतज्ञान के अभ्यास से जानना स्वतः ज्ञप्ति है और ज्ञानियों से श्रुत का अभ्यास करके जानना परतः ज्ञप्ति है। अपने-अपने स्थान पर दोनों का महत्त्व है। परन्तु विनय सहित गुरुदेव से श्रवण करना और जानना-जिनशासन का प्रमुख अंग है। जिससे मानकषाय का विसर्जन प्रवृत्यात्मक रूप से होता है। २. चिन्तन और दर्शन स्वतः ही होता है, परतः नहीं। ये श्रवण और ज्ञान की उत्तरावस्था हैं। चिन्तन और दर्शन से मानविसर्जन की साधना सफल होती है । ३. मान-जनित दुःख अनन्त है।
जस्स वि उब्भवे माणो, तं खु सिग्धं विणस्सइ । हवइ पस्स भो भव ! माणेण अहमा गई ॥१०॥
जिस (विषय या पदार्थ या भाव) का भी मान उत्पन्न हो जाये, वही शीघ्र विणष्ट हो जाता है । हे भव्य ! देख, मान से अधम गति होती है ।
टिप्पण-१. मान हीनता का उत्पादक है । २. जिस विषय से संबन्धित मान होता है, वही हीन-तुच्छ हो जाता है । जैसे किसी को रूप का मान होता है तो उसका रूप हीन या कुरूप हो जाता है अथवा श्रुत का मद होता है तो वह श्रुत विहीन या कुश्रुतवाला हो जाता है । ३. भव्य सम्यक् भाव में परिणत होने की योग्यतावाला। इस संबोधन से यह सूचन किया है कि 'हे आत्मन् ! मान एक अधम