Book Title: Mokkha Purisattho Part 03
Author(s): Umeshmuni
Publisher: Nandacharya Sahitya Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 305
________________ ( २८८ ) धर्म में बाधक कारण और तज्जनित भाव-- पच्चक्खाण-कसाएण, सायासोक्खं पियं भवे । सव्व विरइमिच्छतो, पुण कट्ठाहि बोहइ ॥३४॥ प्रत्याख्यानावरण कषाय से शाता-सौख्य प्रिय हो सकता है। फिर सर्वविरति की इच्छा करते हुए (भी) कष्टों से डरता है। टिप्पण-१. शाता=शारीरिक सुख-अनुकूल वेदन। सौख्य= वैषयिक सुख, इन्द्रियों के लिये अनुकल विषयों का संयोग और वेदन । २. प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से कई प्रकार के भाव होते हैं । उनमें एक स्थिति शाता और सौख्य की प्रियता भी हो सकती है। ३. जिसे शातासौख्य प्रिय होते हैं, उसे कष्ट अप्रिय होते हैं । जो अप्रिय हो, उसका संयोग न हो-यह चाह बनी रहती है। ४. चरित्र-आराधना में स्पष्ट रूप से शारीरिक शाता और ऐन्द्रियिक सौख्य के साधनों का स्पष्ट रूप से त्याग होता है । ५. सम्यक्त्वी जीव के हृदय में सर्वविरति चरित्रधर्म को ग्रहण करने की इच्छा अवश्यमेव होती है। यदि ऐसी इच्छा न हो तो वह सम्यक्त्वी नहीं हो सकता । ६. सम्यक्त्वी जीवों की चरित्र-ग्रहण की अभिरुचि होते हुए भी सभी का सामर्थ्य और साहस सदृश नहीं होता है । कई जन कष्टसहिष्णु नहीं हो पाते हैं । अतः 'चरित्रधर्म अवश्यमेव ग्राह्य है'यह मानते हुए भी उन्हें कष्टों से भय लगता है । ७. उन्हें धर्म प्रिय अवश्य होता है, किन्तु जान-बूझकर कष्ट के मार्ग पर चलना उनके बस की बात उन्हें लगती है। उनका चिन्तन 'पावो सया अकज्जोत्ति, तम्मुत्तं साहुजीवियं । करेइ मोक्खुवादाणं, गेज्झं सिद्धत्तपत्थिणा' ॥३५॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338