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धर्म में बाधक कारण और तज्जनित भाव--
पच्चक्खाण-कसाएण, सायासोक्खं पियं भवे । सव्व विरइमिच्छतो, पुण कट्ठाहि बोहइ ॥३४॥
प्रत्याख्यानावरण कषाय से शाता-सौख्य प्रिय हो सकता है। फिर सर्वविरति की इच्छा करते हुए (भी) कष्टों से डरता है।
टिप्पण-१. शाता=शारीरिक सुख-अनुकूल वेदन। सौख्य= वैषयिक सुख, इन्द्रियों के लिये अनुकल विषयों का संयोग और वेदन । २. प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से कई प्रकार के भाव होते हैं । उनमें एक स्थिति शाता और सौख्य की प्रियता भी हो सकती है। ३. जिसे शातासौख्य प्रिय होते हैं, उसे कष्ट अप्रिय होते हैं । जो अप्रिय हो, उसका संयोग न हो-यह चाह बनी रहती है। ४. चरित्र-आराधना में स्पष्ट रूप से शारीरिक शाता और ऐन्द्रियिक सौख्य के साधनों का स्पष्ट रूप से त्याग होता है । ५. सम्यक्त्वी जीव के हृदय में सर्वविरति चरित्रधर्म को ग्रहण करने की इच्छा अवश्यमेव होती है। यदि ऐसी इच्छा न हो तो वह सम्यक्त्वी नहीं हो सकता । ६. सम्यक्त्वी जीवों की चरित्र-ग्रहण की अभिरुचि होते हुए भी सभी का सामर्थ्य और साहस सदृश नहीं होता है । कई जन कष्टसहिष्णु नहीं हो पाते हैं । अतः 'चरित्रधर्म अवश्यमेव ग्राह्य है'यह मानते हुए भी उन्हें कष्टों से भय लगता है । ७. उन्हें धर्म प्रिय अवश्य होता है, किन्तु जान-बूझकर कष्ट के मार्ग पर चलना उनके बस की बात उन्हें लगती है।
उनका चिन्तन
'पावो सया अकज्जोत्ति, तम्मुत्तं साहुजीवियं । करेइ मोक्खुवादाणं, गेज्झं सिद्धत्तपत्थिणा' ॥३५॥