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आलोचना से निःशल्य होकर मोक्षमार्ग में विचरें और उससे ही ऋजु = सरल होकर जो अतीत के अतिचार हैं उन्हें नष्ट करें ।
टिप्पण -- १. शल्य = मोक्षमार्ग में विघ्न उत्पन्न करनेवाले और गति का अवरोध करके भव में अटकानेवाले कण्टक के तुल्य भाव । वे तीन हैं-माया = छलकपट, निदान = धर्माचरण के बदले भौतिक फल की माँग और मिथ्वात्व = जिनप्रज्ञप्त तत्त्व पर अश्रद्धा, सरागि-दर्शित भावों पर श्रद्धा और तत्त्वातव में रुचि का अभाव । २. आलोचना के द्वारा आत्मदोष-दर्शन से माया, अनात्मभाव में अरुचि और आत्मभाव में रुचि से निदान और यथार्थबुद्धि से मिथ्यात्व विनष्ट होता है । जैसे काँटे के निकल जाने पर गति सुगमता से और शीघ्र होती है, वैसे ही आत्मा के निःशल्य हो जाने पर मोक्ष मार्ग में अवरोध नहीं रहता है । इसलिये सरलता से उसमें विचरण हो सकता है और भव-बन्धन छेदे जा सकते हैं । ३. आलोचना से आगे प्रतिक्रमण होता है । वह आलोचना पर ही आधारित रहता है । इस लिये अतीत के उन दोषों का प्रतिक्रमण सुगमता से विनाश किया जा सकता है। ४. ऋजु - आलोचक दोषों को दोष रूप में और गुणों को गुण रूप में समझने में अवक्र - सरलभाव का स्वामी बन जाता है । सरलता दोषों को क्षय करने में सहायिका बनती है ।
उजुभावं पवन्नो सो, कोडिल्लं अनरं हणे । लहिऊण विसोहि च, होइ सद्धम - भायणं ॥ ५९ ॥
ऋजुभाव को पाया हुआ वह ( साधक) कुटिलता और अ-नर-वेद = स्त्री- नपुंसक वेद को नष्ट कर सकता है और विशोधि को प्राप्त करके सद्धर्म का पात्र बन जाता है ।
टिप्पण - १. ऋजुता से कुटिलता = वक्रता और माया नष्ट हो जाती है । २. माया से ही प्रायः स्त्रीवेद और नपुंसक वेद का बन्ध होता है । अतः = ऋजुता संपन्न आत्मा को इनका बंध नहीं होता